Showing posts with label G B Pant University. Show all posts
Showing posts with label G B Pant University. Show all posts

February 15, 2009

अंग्रेज़ी चलचित्र न देखने के नुक्सान

यूँ तो भारतवर्ष में रहने वाला जनसमूह भारतीय चलचित्र का शौकीन है ही परन्तु बीते हुए दशक में अंग्रेज़ी सिनेमा ने हम सबके दिलों में पैठ बना ली है। अंग्रेज़ी चलचित्र देखने के कुछ ख़ास लाभ तो नही हैं परन्तु न देखने के नुक्सान अवश्य हैं। अब जैसे हमारी संगीता जी को ही ले लीजिये जिन्हें अंग्रेज़ी सिनेमा में कोई दिलचस्पी न होने के कारण अपनी खोपड़ी भिनभिनानी पड़ी।

पंतनगर विश्वविद्यालय में दर्जन भर से अधिक छात्रावास हैं। इन्हीं में से एक है सरोजिनी भवन जिसमें पठन-पाठन के काल में हम रहा करते थे। इसके पास में माहेश्वरी नामक एक छोटी सी दुकान है जिसमें आश्चर्यजनक रूप से सुई से लेकर सी डी तक हर प्रकार की वस्तुएं मिल जाती हैं। जब यूँ ही कहीं से घूम फ़िर कर हम माहेश्वरी की दुकान पर पहुँचे तो ये आभास हुआ कि उस के आस-पास कुछ समाज में ही रहने वाले असामाजिक तत्त्व मंडरा रहे थे जिनके पास करने के लिए कुछ ख़ास काम न था। अतः जब हम वापस जाने लगे तो उन्होंने डिस्कवरी चैनल चलाते हुए विभिन्न प्रकार के जीव जंतुओं की आवाजें निकालनी प्रारंभ की मानों हमें चुनौती दे रहे हो कि किस जानवर की आवाज़ है बूझो तो जानें। उन सबके मध्य एक अंग्रेज़ी चलचित्र से प्रेरणा लेने वाला भी उपस्थित था। जानत्विक भाषा से ऊपर उठ उसने मनुष्यों की बोली में चार्लीज़ एंजेल्स का उच्चारण किया। टिप्पणी कुछ सटीक थी क्योंकि हम तीन थे जिसमें से कहानी की नायिका संगीता जी के मुखमंडल पर लूसी लिऊ की छाप थी कहा जाए तो अनुपयुक्त न होगा। मैंने और मेरी सहपाठिन ऋचा ने उसके बुद्धिकौशल की प्रशंसा की एवं छात्रावास की और बढ़ गए। वापस पहुँचने पर संगीता कुछ व्याकुल सी दिखाई दी। जब उससे कारण पूछा गया तो वह निष्कपट स्वर में बोली - "मुझे एक बात समझ नहीं आई।" "क्या? " ऋचा ने कौतुहल के साथ पूछा। अंग्रेज़ी चलचित्र के अद्भुत संसार से बेखबर संगीता बोली- "हम लोग तो तीन ही थे, तो फिर उन्होंने चालीस एंजेल्स क्यूँ कहा?"

January 29, 2009

पुस्तकालय और आलस्य

मेरी माँ के हमेशा कहे जाने वाले वचनों में 'आलस्य गरीबी की जड़ है' प्रमुख है। परन्तु शायद उन्हें यह जानकर आश्चर्य न होगा कि यह गरीबी के साथ - साथ उलाहना सुनने और लताड़े जाने का भी द्योतक है।
मैं यह सिद्ध नहीं करना चाह रही कि मैं दीन-हीन भाग्य की मारी हुई हूँ या हर कोई जुतियाता रहता है। न ही काव्या पन्त के मुख से खीझ की पराकाष्ठा में निकला यह वाक्य कि ' भैया हमें तो कुत्ता भी लात मारकर चले जाता है ' मुझपर सही बैठता है, परन्तु मैंने भी कई न सही कुछ दुत्कार की कठिन घड़ियाँ जीवन में झेली हैं।

पंतनगर विश्वविद्यालय का चार मंज़िला पुस्तकालय एशियाई महाद्वीप के कुछ सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक है। इसके बावजूद इसी विश्वविद्यालय के गृह-विज्ञान महाविद्यालय में अपना एक पुस्तकालय है। यह सोचने का विषय है कि इस प्रकार कि कृपा केवल इस महाविद्यालय पर क्यों की गई है, परन्तु अभी हम मूल विषय पर आते हुए यह बता दें कि वि.वि. के हर छात्र - छात्रा को दाखिला लेने पर पुस्तकालय से चार कार्ड प्राप्त होते हैं। यह मुझे भी हो सकते थे, पर लापरवाही और आलस्य मेरे दो भाइयों के समान मेरे साथ-साथ चले तो मैं सर्वथा इनको बनवाने का कष्ट न कर पाई। दूसरे वर्ष में फ़ाइन देकर कार्ड बनवाने का विचार मुझे कुछ सुहाया नहीं और तीसरा एवं चौथा वर्ष भी क्रमशः इसी प्रकार बीत गया।

अध्ययन पूर्ण होने पर वि.वि. में पढ़ रहे विद्यार्थी को एक 'नो-ड्यूज' नामक पर्चा मिलता है। यदि कोई यह प्रामाणित कर दे कि पंतनगर के 'नो-ड्यूज' से बड़ा भी कोई सरदर्द है तो मैं प्रतिज्ञा करती हूँ कि अपनी भविष्य में छपने वाली पुस्तक का विमोचन उसी से करवाउंगी। यह नो-ड्यूज़ सैकड़ों विभागों के सामने अलग-अलग प्रकार के जूते-चप्पल घिसने के पश्चात् पुस्तकालय से होता हुआ भी जाता है। वहाँ आप अपने कार्ड समर्पित कर दें और पुस्तकालय की मल्लिका [ जो हृदयविदारक रूप से एक ख़तरनाक महिला हैं ] के हस्ताक्षर आपके हुए समझिये।

मेरे समक्ष एक जटिल प्रश्न् था- 'कार्ड कहाँ से आए?' चतुराई दिखाते हुए जब मैंने यूँ ही नो-ड्यूज़ करवाने का प्रयत्न किया, तो कुछ समय तक मेरी कार्ड आवंटन संख्या [ जिसके लिए एक और कार्ड होता है ] ढूंढ-ढूंढ कर परेशान एवं भन्नाई पुस्तकालय की साम्राज्ञी यह पता चलने पर कि वह ऐतिहासिक कार्ड कभी बना ही न था, कर्कश आवाज़ में कुछ यूँ बोलीं - " कार्ड बनवाया ही नहीं आज तक? अब क्या करियेगा? हमनें अपनी बीस साल की नौकरी में आज तक ऐसा कोई नहीं देखा जिसने कार्ड न बनवाया हो। जाईये सेंट्रल लाइब्रेरी में पता कीजिये। कार्ड ही नहीं बनवाया है।"
सर उठाने में कष्ट तो था पर एक सरसरी निगाह इधर-उधर दौड़ाने पर यह जानकर संतोष हुआ कि मुझे अधिक लोगों ने न देखा था। बस कुछ हँसते हुए सहपाठी, कुछ अन्य पुस्तकालय कर्मी और तीस- पचास अचम्भे से मेरी ओर देखते हुए जूनियर्स।