August 07, 2009

मैंने दागा गोल मुझे पता न चला

आर्मी स्कूल अल्मोड़ा की हॉकी टीम से पूरा अल्मोड़ा थर्राता था। जब भी हमारे स्कूल की टीम का मैच होता था, हम बस जीतने के लिए जाते थे। ऐसा कोंई मैच न रहा होगा जिसे जिसे हमारी टीम ने न जीता हो। हॉकी के मैच में जाना बड़ा ही सुखदायी था। इसके दो कारण थे। पहला यह था की मैच अक्सर स्कूल के आखिरी घंटों में होता था। स्टेडियम तक जाने का समय, मैच के पहले के इंतज़ार का समय एवं मैच। यह सब मिलाकर हमारी अंत की कुछ पढ़ाई छूट जाती थी। स्कूल जाकर पढ़ाई न करने के सुख जैसा कोंई सुख न था। अतः यह था हमारा सुखदायी कारण नम्बर एक।
ऐसा माना जाता है की उत्साह बढ़ाने पर खिलाड़ियों का प्रदर्शन स्तर अच्छा हो जाता है। आर्मी स्कूल के खिलाड़ियों का भी होता था। इसलिए हम अपनी पूरी ताकत लगाकर गला फाड़ फाड़ कर, सभी खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ाने में तत्पर थे। साथ ही हामिद मैम भी काफ़ी तत्पर थीं। इस तत्परता के कारण अगले दिन मैम का गला पूर्णतया बैठा होता था। इसी कारणवश वह धीरे से ' सेल्फ- स्टडी' कहकर एक कोने में बैठ जातीं और पूरी कक्षा में खुशी की लहर दौड़ जाती। यह हुआ हमारा सुखदायी कारण नम्बर दो।

समय के साथ साथ हॉकी का चलन स्कूल में बढ़ा तो खिलाड़ी भी बढे। खिलाड़ी बढे तो एक टीम में फिट न हो पाये। धीरे-धीरे हॉकी की एक बी टीम बनी। थोड़ा और चलन और खिलाड़ी बढ़ने पर सी और डी टीम भी बन गयीं।
यह टीमें अपने प्रदर्शन के घटते क्रम में ऐ, बी, सी और डी थीं।

आर्मी स्कूल की डी टीम में राहुल नामक एक लड़का था। यह चौथी कक्षा का छात्र था। एक बार इस डी टीम का मैच किसी दूसरे स्कूल के साथ होना निश्चित हुआ। मैच १-१ के स्कोर के साथ बराबरी पर रहा। गौर करने लायक बात यह है की हमारी डी टीम भी इतनी शक्तिशाली थी की उसने दुसरे स्कूल की टीम को जीतने न दिया। मैच ड्रा करवाकर प्रसन्नचित्त डी टीम स्कूल की ओर वापस आ गई।

आर्मी स्कूल की डी टीम का राहुल नामक लड़का मेरा भाई था।
"कैसा रहा तुम्हारा मैच?" मैंने राहुल से पुछा।
"अच्छा था। ड्रो हो गया। " राहुल ने कहा।
"अच्छा गोल कितने हुए?"
" एक एक हुआ दोनों टीम की तरफ़ से।"
"हमारे यहाँ किसने किया?"
वो थर्ड क्लास का एक लड़का है उसने किया"
"अच्छा।"
इस संवाद के समय हमारे माता पिता शहर से बाहर हमारे ननिहाल गए हुए थे।

उत्तर भारत में दो मुख्य समाचार पत्र हैं - दैनिक जागरण और अमर उजाला। दोनों ही यदा कदा स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करते हुए पाये जाते हैं। इन दो समाचार पत्रों में से पहला वाला हमारे घर पर आता था। इस समाचार पत्र के आने और दूसरे के न आने से राहुल को काफ़ी नुक्सान हुआ। क्योंकि वह अपने बारे में छपी उस ख़बर से बेखबर रहा जो उस समाचार पत्र में थी जो हमारे घर पर नहीं आता था।

भोर की लालिमा अभी छंटी नहीं थी, चिडियां चहक रहीं थीं और पेडों के पत्तों पर ओस की बूँदें थीं। फ़ोन की घंटी बजी और मेरे उठाते ही मुझे अपनी माँ की चहकती हुई आवाज़ आई। "ऋचा राहुल का नाम आया है पेपर में। अमर उजाला में। "
"क्या?" आश्चर्य और अविश्वास मिश्रित आवाज़ में मैंने कहा।
मम्मी पढ़कर सुनाने लगीं "कल स्टेडियम में आर्मी स्कूल की डी टीम और महर्षि विद्या मन्दिर के बीच हुआ मैच ड्रा हो गया। आर्मी स्कूल की ओर से एकमात्र गोल राहुल ने किया........ अरे राहुल को बुला"
मैंने राहुल को आवाज़ दी और उसने भी मम्मी के मुह से स्वयं के द्बारा गोल किए जाने की ख़बर प्राप्त की।

"हा हा हा गोल किसी और ने किया और नाम तेरा आ गया। वाह!"
"मैंने ही किया था शायद। मुझे याद सा आ रहा है कि बौल मेरी हॉकी से लगती हुई गई थी। " बड़े बड़े कांडों के छोटे छोटे बयानबाज़ों की तरह अपने बयान को बदलता हुआ राहुल बोला।

स्कूल पहुचने पर कक्षा तीन का एक लड़का राहुल के पास आया।
"भैय्या आपका नाम राहुल है?" वह बोला।
"हाँ।" राहुल ने कहा।
"कल गोल क्या आपने किया था?"
"हाँ।" राहुल के चेहरे पर विजयी मुस्कान खिल उठी।
"पर वो तो कह रहा है कि गोल मैंने किया था." उसने एक बच्चे की ओर इंगित किया।
"अरे नहीं मैंने ही किया था।" कहकर राहुल ने उसको झिड़क कर भगा दिया।

तो इस प्रकार कक्षा चार का राहुल नामक वह लड़का उन बड़े बड़े लोगों का एक उदाहरण है जो न जाने कितने बड़े बड़े काम कर जाते हैं पर उन्हें स्वयं इस बात का आभास नहीं होता कि वे क्या कर गुज़रे हैं।

April 02, 2009

Beta zara yahaan aana

The other day I was watching this Russel Peters' stand up act and he discussed how parents could embarrass their kids in front of relatives and acquaintances by saying "Come here beta.. show uncle your dance." It was familiarly funny. Because it has happened to me, you, her and him. It happens!

It has happened so many times with me. Some relative is at your place for a visit and everyone is sitting and chatting when my mom suddenly comes up with "Arey Richa to kaafi poems likhti hai. Richa, ja apni poem waali diary leke aa zara. Dikha to aunty ko." So you get into this 'marta kya na karta ' situation and bring it.

Aunty: (after reading) haan achchi likhi hain.
(I never understood whether this was supposed to be taken as a compliment or a formal forced praise. There was once this uncle who stylishly said "haan likhi to kaafi achchi hain" and wore an air of none less than Dinkar or Maithilisharan Gupt. Too bad, I felt so bad about myself.)
Me: Thank you aunty.
Mom: Arey ye to kaafi kuch likhti rehti hai. Abhi isne dadaji pe bohot hi achchi kahaani likhi hai. Richa dikha aunty ko.

[Hence I shove out all my plans to ever get a book published. Who will read it? Sabne to ghar pe aake padh hi li hai.]

But there are things that can be more embarrassing. Singing or dancing for most parts. I really appreciate God for not giving me that natural influx of a dancer. "Beta dance karke dikhao" is just too much to take. I remember my mom once asked my brother to dance in front of bua, but he just wouldn't. Nothing could pursue him. Well you can think of defying them for once but the aftereffects can be dangerous. You are in front of a grumpy mother who will tell you how much you disrespect her and never agree to whatever she has to say and you will keep feeling guilty for the rest of the day.

Well, it is not that they want you to be uncomfortable or something. They just don't realise. They are too happy about the talent of their child to see whether such a situation abashed the kid.
I recognised this fact when a friend of mine came to see me. While talking to her I turned to my brother and asked him to play the flute which of course he did not.I pleaded, requested and begged. But he didn't. Later on I realised.. I was my mom!

March 27, 2009

The Peer Group Effect

When we were in 2nd year and I had Gitanjali and Richa as my roomies we heard Gitanjali humming a really unknown song on a leisure day. Like everyone else, we had this innate habit of incorporating whatever we were studying in our daily lives and we were studying early childhood and peer groups. Since we knew, that peer groups had a strong influence on what a child learnt while growing up we quickly concluded that "ho na ho ye Gitanjali ke peer group ne hi sikhaya hoga isko" Hence from that day, if someone sang a song about which noone knew we reasoned out that it was because they had a strong peer group influence. Singing unknown songs thus came to be known as a peer group effect. Later on a few relaxations were given and songs of the 90s were included in peer group songs. We used peer group songs now and then to have fun and make fun of the 90s. "Kaise gaane hote they. Kapde to dekho. Inko ab ye dekh k sharam nahin aati hogi, ki humne aisa bhi kiya hai?"


So this time its not the other day, it was yesterday and today. Yesterday was when Avantika n I sat down chatting and she started the conversation with "oye hoy hoy tu soni kudi, oy hoy hoy jaadoo ki pudi". to which I replied "Bholi bhali ladki, Khol tere dil ki, pyar waali khidki, ho ho ho ho". and then it went on and forth.
Today was when I got a mail from parmoparam mitr which had a youtube link of Churrakke dil mera, goriya chali. (P.S. it has to be churrakke and not chura ke since we sang it that ways only) So I remembered the times when it snowed in Nainital and we ran to the ground wearing gum-boots and singing churrakke dil mera goriya chali while sliding here and there . The Akshay Kumars, Govindas, Aamir khans, Suneil Shettys, Saif Alis and Shahrukh Khans of 90s. Sab hum hi they. The songs on which we have been weaned, the songs that we grew up listening to...


If you come across videos of any of these songs, you bet you'll find them to be hilarious. Be it the back n forth neck exercise of Saif in haathon mein aa gaya jo kal rumaal aapka or pelvic thrust of Akshay in tu cheez badi hai mast mast. But those were the times when we knew the lyrics of these songs by heart and waited for friday to see philips top ten. Those were times when we had to rewind the casette every time we wished to re-listen to a song and not just push a button to choose an option of 'repeat one'. Those were the times of careless childhood..


Anyhow before this topic starts turning a little too serious, I would like to leave you with this:


http://www.youtube.com/watch?v=zDKcevMFUCo



Enjoy

February 24, 2009

समय

समय यदि कभी मित्र है तो प्रतिद्वंदी भी। अनुभव देता है तो परस्पर त्रुटियों का बोध करा चोट भी खिलाता है।

बचपन में धूल के बदल उड़ाते, निश्चिंतता को ओढे, इसी समय के समक्ष अब सर्वथा संसार की परिभाषा ही बदली सी मालूम होती है। कच्ची वीथिकाओं पर चीड़ और देवदार के वृक्षों की छाँव के तले चलते हम क्या कभी इस आने वाले जीवन की कल्पना भी करते? हरी काई की मोटी परत से जमी, सड़क के साथ दौड़ती दीवार जो अब दृष्टि का उत्सव है तब साधारण दीवार ही लगती थी। एक छोर से दौड़कर आता हुआ श्वेत कोहरा तब उजली सुनहली चादर नहीं लगता था।

गोधूली में पत्थर की चौड़ी पटालों पर खेलते हुए हमनें इन कंक्रीट के जंगलों का स्वप्न तो न देखा था।

पहाडों से पलायन करते हम अपने साथ परस्पर उसका एक अंश ढहाकर ले आते हैं। इनसे अलग होने का खेद अकथनीय है, अवाच्य है, किसी दूसरे व्यक्ति के लिए अकल्पनीय है।

February 23, 2009

Typical Mom Characteristics

The other day we sat down discussing about how moms are perennially fed up of all the हरकतें and ड्रामे that we do during our childhoods. We found out that be it any place these are the typical dialogues that moms use with slight differences:

1. When fathers come searching for some xyz thing, can't find it and ask for it in frustration :

Papa: "Fridge ke upar jo pen rakhi hui thi wo kahaan gayi?"
Mummy: " arey wahin hogi.."
Papa: "arey nahi hai yaar."
Meanwhile mummy comes looking for it and cannot find it.
Mummy: "Maine to yahin rakhi thi. Ye bachchon ne kahin idhar udhar kar di hogi."

Ilzaam is invariably always on the bachchas.

2. Scene changes to sabzi market where mom has dragged us using emotional blackmails of all sorts " Mere saath kyon jaaoge ab tum bazaar, ab to bade ho gaye ho tum. Mummy ke saath jaane mein sharam aati hai.."
So here we are now loaded with sabzi of all colours and shapes. (Poore mahine ki khareed li hain, kya bharosa agli baar bachche saath mein aaye ya nahi)
Mummy: Richa zara auto bula jaldi se.
I go and talk to the autowala. Meanwhile mom comes and dumps the truckloads of sabzi in the auto.
Mummy: Bhaiya zara rukna thode aloo lene hain.
Autowala: Madam time jaata hai.
Me: Mummy ho gaya ab.. itna khareed k chain nahi aaya?
Mummy: Chup reh tu. (to autowala) bhaiya bas 2 min hi toh rukna hai.
Finally mummy wins and aloo ka bora is loaded in the auto.
On the way back mummy looks at me and says " Ye Tilak road mein gajak bade achche milte hain. Richa zara auto rukwana to "
Grrrrrr......

3. Now this is inevitable.. you cannot stop moms from doing this..
Mummy: "Itni der se dekh rahi hoon, idhar udhar idhar udhar ghoomne mein lagi hai, padhai kyon nahi kar leti hai."
Me: "abhi kar loongi na thodi der mein."
Mummy: "Neeche Ashu Arpan ko dekho, kitna kehna maante hain apni mummy ka. Ek tum ho. Meri koi baat hi nahi sunte."
Me: "unhi ko bana lo fir apne bachche.
Mummy: "Tumse to kuch kehna hi bekaar hai."

4. This is when you come back on vacations. First few days mom gets busy making good food. When a week is over things change.. 7 baje hi 9 baj jaate hain.

Its 7.00 in the morning and while you think you are blissfully asleep you hear this..
"Richaaaaaaaa uth ja. Kabtak soi rahegi? 9 baj gaye hain. Jaldi uth."
Me: "haan uth rahi hoon." (n I go back to sleep again.)
Mom enters the room shouts again.
Me: "Chii yaar mummy sone do na."
Mom: "aadha din beet gaya hai. Tum log soye pade ho. Chalo uth jaao."
While leaving the room if its summer time, mom will switch off the fan, if its winter then she will take your rajai along with her.

There are numerous other cute things about moms that always were and will be :)

February 17, 2009

अंग्रेजों के चोंचले

इस लेख के दो प्रमुख मुद्दे हैं। पहला यह कि गोरे बड़े ही दूरगामी थे। भारत से जाते-जाते अपनी अंग्रेजियत यहाँ रोपकर चले गए, जिसकी लहलहाती फ़सल आजकल के नवजवानों के रूप में हम देखते ही हैं। दूसरा यह की मुझे सादा दूध पीना बड़ा ही कष्टकारी लगता है। जब तक उसमें भली प्रकार कुछ ऐसा न मिला हो, जिससे दूध का वास्तविक स्वाद जाता रहे तब तक उसे पीना मेरे लिए अकल्पनीय है। एक तथ्य जो इस किस्से से सामने आएगा वो यह भी है कि मैं अपने आप को तीसमार-खाँ समझती थी जो कि एक भ्रम् निकला। इस भ्रम् को तोड़ने में सहायक रहे दूध और अंग्रेजों की बोई हुई फ़सल।

गोधूली का समय था और मैं अपने परमोपरम मित्र के साथ कैफे कॉफी डे में बैठी गंभीर चर्चा में निमग्न थी। अंग्रेज़ों द्बारा बोए गए बीज की एक पैदावार तभी एक छोटी पुस्तक और कलम लेकर मुस्कुराता हुआ हमारे वार्तालाप को भेदता सामने खड़ा हुआ। उसे प्रसन्न करने के लिए मैंने उसे एक हॉट-चॉकलेट लाने का निर्देश दिया जो कि एक पेय पदार्थ है। इसमें गर्म दूध में चॉकलेट मिश्रित होने के कारण मैं निश्चिंतता से उसे पी जाती हूँ।
परन्तु इस हॉट-चॉकलेट के आगमन पर मुझे पता चला कि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था। चॉकलेट का कहीं अता-पता नहीं था और दूध की सफेदी उजाला जैसी न सही, मुझे कष्ट तो दे ही रही थी। इसे पीने में स्वयं को असमर्थ पाते हुए मैंने पुस्तिका लिए हुए व्यक्ति को पुनः बुलवाया। अपने जहाँ-तहाँ हास-परिहास करने वाले स्वभाव के अहंकार में डूबी हुई मैं उससे बोली- ' भैया इस हॉट-चॉकलेट में बस हॉट ही हॉट है, चॉकलेट तो है ही नहीं।'
यह सुनकर अश्राव्य सी आवाज़ में जब वह अंग्रेज़ी में कुछ बडबडाया तो मुझे लगा कि मेरा कार्य सफल हुआ है और मैंने प्रसन्नता में सर हिला दिया। कुछ ही देर में मेरी प्रसन्नता को छिन्न-भिन्न करता वह उस हल्के श्वेतवर्ण दूध को और गर्म कर ले आया।

परमोपरम मित्र ने स्थिति का लाभ लेते हुए आनंदविभोर होकर कहा- 'और मारो सर्कास्टिक कमेंट्स'। मेरा घमंड तो चूर हुआ ही साथ में यह भी पता चला कि अंग्रेज़ों के इस राष्ट्र में हिन्दी का प्रयोग वर्जित है।

February 16, 2009

अंग्रेजों की अंग्रेज़ी

भारतवर्ष में अंग्रेज़ी घट-घट में कुछ इस प्रकार बसी है जैसे घी और खिचड़ी। हम भारतीयों का यह मानना है कि इस भाषा को बोलते हुए उच्चारण साफ़ और स्पष्ट होना चाहिए। हम यह भी मानते हैं कि गोरों से अधिक भली प्रकार से हम ही अंग्रेज़ी बोलते हैं- शब्दों के स्पष्ट उच्चारण के साथ। वे तो आधे शब्द खा जाते हैं और बाकी आधों का चूँ-चूँ का मुरब्बा बना देते हैं। इसी बे सिर-पैर की अंग्रेज़ी का शिकार एक दिन हिमांशु भईया बन गए।

यदि आप पहाडों के भ्रमण पर हैं और कभी अल्मोड़ा जाने की सोचें तो वहाँ पहुँचने पर आपको 'सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में आपका स्वागत है' का बड़ा सा पटल दिखाई देगा। क्योंकि अल्मोड़ा के निकट कई दर्शनीय स्थल हैं अतः यहाँ बहुतायत में लोग भ्रमण के लिए आते हैं जिसमें एक बड़ी संख्या में विदेशी भी सम्मिलित हैं। एक दिन जब हिमांशु भईया संध्याकालीन भ्रमण के लिए निकले तो माल रोड पर घूमते-घूमते उन्हें एक विदेशी ने पकड़ लिया। 'एक्स्क्याऊज़ मई' वह बोला। 'यस्' भईया ने कहा। 'खड या ठल मी वर्ज हौअल खालश ' वह बोला। 'पार्डन ' भईया ने उस अश्राव्य वाक्य को फ़िर से सुनने की कोशिश में कहा। 'हौअल खालश, हौअल खालश' वह बोला। एड़ी चोटी का ज़ोर लगाने पर भी भईया उसकी बात समझने में असमर्थ रहे। इज्ज़त का बैंड बजते देख भईया ने अपने कान और मुँह की और इशारा किया और ' आ आ आ ' बोलकर सर हिला दिया। विदेशी व्यक्ति ने किसी दूसरे व्यक्ति की ओर रुख किया, उससे कुछ पूछा और मुस्कुराता हुआ चल दिया। कौतुहलवश भईया उस व्यक्ति के पास गए और बोले 'भाई साब ये पूछ क्या रहा था?' 'वो होटल कैलाश कहाँ है ये पूछ रहा था।' उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।

'अब बताओ, लिखा कुछ और है और उसे बोलते कुछ और हैं। इसमें हमारी क्या गलती है?' भईया हँसते हुए हमसे बोले। और इस प्रकार हमारे ट्यूशन के एक सुहावने दिन का अंत हुआ।

February 15, 2009

नक़ल की अक्ल

जब कभी भी मेरे सहपाठी या अन्य अनुज छात्र मुझसे यह कहते हैं कि आप बड़ी क्रिएटिव हैं तो यह मुझे सोचने पर विवश कर देता है कि इसे मैं सम्मान का विषय समझूँ या इस वाक्य के पीछे कोई ऐसा कटाक्ष छुपा है जो मुझे ढूंढें नहीं मिल रहा। देखा जाए तो सृजनात्मक होना एक सदगुण ही है, परन्तु इसका प्रयोग आपको हुसैन से लेकर नटवरलाल... सबकुछ बना सकता है।

जब मैं दसवीं कक्षा में पहुँची तो ट्यूशन पढ़ना चलन में होने के कारण मेरी माँ ने मुझे भी 'विद्यालय के उपरांत घर के अलावा किसी और स्थान' पर पढ़ने के लिए भेजना उचित समझा। अतः मैं अपने घर के पड़ोस में ही, हिमांशु भैया के घर ट्यूशन पढ़ने जाने लगी। भईया क्योंकि अभी-अभी परास्नातक की पढ़ाई करके निकले ही थे तो वे हम लोगों से घुले-मिले हुए थे एवं खडूस अध्यापक तो बिल्कुल न थे। इस कारण पढ़ाई और बातचीत के बीच समय कब बीत जाता था पता नहीं चलता था। जोड़-तोड़ ये था कि पढ़ने वाले सभी बच्चे काफ़ी प्रसन्न थे।

हिमांशु भईया हर रविवार कि सुबह हमारी परीक्षा लेते थे। परीक्षा देते समय थोड़ा बहुत इधर-उधर से पूछा जाना हमारे सिद्धांतो को किंचित मात्र भी ठेस नहीं पहुँचाता था। अतः इसी कार्य में तन्मयता से लिप्त सुमित और प्रशांत जब भईया द्बारा पकड़े गए तो नक़ल पर चर्चा चल उठी। चर्चा में उन सभी विधियों का वर्णन किया जा रहा था जिसके द्वारा छात्र अपनी अंकतालिका को सुंदर बनाने का प्रयत्न करते हैं। जब हमने विद्यालय में प्रचलित कुछ विधियों का ब्यौरा दिया तो भईया बोले - " ये सब तो आम लोग करते हैं। आजकल नक़ल के तरीकों में नवीनता है, सृजनात्मकता है। अभी कुछ ही दिनों पहले मेरे बड़े भाई किसी कॉलेज में परीक्षक बनकर गए जहाँ उन्होंने नक़ल का एक अनूठा किस्सा पकड़ा। एक परीक्षार्थी पर जब उन्हें संदेह हुआ तो उन्होंने उसकी तालाशी ली। जगह-जगह से अनेकानेक कवियों और लेखकों की जीवनियाँ निकलीं। जब उसका मुँह खुलवाया गया तो उसमें एक छोटा सा पर्चा निकला जिसपर अति लघु लिखाई में अंकित था- कबीरदास दाएं मोजे में, सूरदास बायें मोजे में, और रहीम पैंट के पीछे वाली जेब में।

अंग्रेज़ी चलचित्र न देखने के नुक्सान

यूँ तो भारतवर्ष में रहने वाला जनसमूह भारतीय चलचित्र का शौकीन है ही परन्तु बीते हुए दशक में अंग्रेज़ी सिनेमा ने हम सबके दिलों में पैठ बना ली है। अंग्रेज़ी चलचित्र देखने के कुछ ख़ास लाभ तो नही हैं परन्तु न देखने के नुक्सान अवश्य हैं। अब जैसे हमारी संगीता जी को ही ले लीजिये जिन्हें अंग्रेज़ी सिनेमा में कोई दिलचस्पी न होने के कारण अपनी खोपड़ी भिनभिनानी पड़ी।

पंतनगर विश्वविद्यालय में दर्जन भर से अधिक छात्रावास हैं। इन्हीं में से एक है सरोजिनी भवन जिसमें पठन-पाठन के काल में हम रहा करते थे। इसके पास में माहेश्वरी नामक एक छोटी सी दुकान है जिसमें आश्चर्यजनक रूप से सुई से लेकर सी डी तक हर प्रकार की वस्तुएं मिल जाती हैं। जब यूँ ही कहीं से घूम फ़िर कर हम माहेश्वरी की दुकान पर पहुँचे तो ये आभास हुआ कि उस के आस-पास कुछ समाज में ही रहने वाले असामाजिक तत्त्व मंडरा रहे थे जिनके पास करने के लिए कुछ ख़ास काम न था। अतः जब हम वापस जाने लगे तो उन्होंने डिस्कवरी चैनल चलाते हुए विभिन्न प्रकार के जीव जंतुओं की आवाजें निकालनी प्रारंभ की मानों हमें चुनौती दे रहे हो कि किस जानवर की आवाज़ है बूझो तो जानें। उन सबके मध्य एक अंग्रेज़ी चलचित्र से प्रेरणा लेने वाला भी उपस्थित था। जानत्विक भाषा से ऊपर उठ उसने मनुष्यों की बोली में चार्लीज़ एंजेल्स का उच्चारण किया। टिप्पणी कुछ सटीक थी क्योंकि हम तीन थे जिसमें से कहानी की नायिका संगीता जी के मुखमंडल पर लूसी लिऊ की छाप थी कहा जाए तो अनुपयुक्त न होगा। मैंने और मेरी सहपाठिन ऋचा ने उसके बुद्धिकौशल की प्रशंसा की एवं छात्रावास की और बढ़ गए। वापस पहुँचने पर संगीता कुछ व्याकुल सी दिखाई दी। जब उससे कारण पूछा गया तो वह निष्कपट स्वर में बोली - "मुझे एक बात समझ नहीं आई।" "क्या? " ऋचा ने कौतुहल के साथ पूछा। अंग्रेज़ी चलचित्र के अद्भुत संसार से बेखबर संगीता बोली- "हम लोग तो तीन ही थे, तो फिर उन्होंने चालीस एंजेल्स क्यूँ कहा?"

February 14, 2009

लड़कियां और लड़के

हाल ही में मुहावरे और लोकोक्तियों का अध्ययन करते-करते मेरी दृष्टि 'मुँह खुला का खुला रह जाना' पर पड़ी। उदाहरण सोचने पर एक वाक्य नहीं वरन कई वाक्यों का एक समूह जो कि एक छोटे से वृत्तान्त का वर्णन करता है मुझे स्मरण हो आया।

बात कक्षा आठ की ही है, और संयोग से विद्यालय भी आर्मी स्कूल ही है। परन्तु संयोग इतना भी नहीं गहराया कि कहानी के पात्र भी हम ही हों। इसी बातूनी कक्षा में एक समय में विनीत कुमार के दायें-बाएँ राशि एवं नव्या नामक दो लड़कियां बैठा करती थीं। इनकी बातचीत की गाड़ी भी किसी न किसी प्रकार चल ही रही थी। राशि इस प्रकार की लड़कियों में गिनी जा सकती है जिन्हें परमोपरम मित्र की भाषा में टें-फें कहा जाता है। नव्या एक सीधी सरल सी लड़की थी। विनीत एक लड़का था।

हम भारतीयों ने गोरों के अनुसरण में उनके भोजन की पद्धति भी अपना ली है हम दिनभर में तीन अथवा चार बार खाना खाते हैं। अतः 'दो वक्त की रोटी' सरीखे जुमले अपनी मौलिकता खो चुके हैं। तो एक दिन इन तीनों के मध्य चर्चा का विषय था सुबह का नाश्ता। 'कौन सुबह क्या खाकर आता है' तीनों परस्पर इस विषय पर गंभीरता से अपने विचार प्रकट कर रहे थे। जैसा कि बताया गया है कि विनीत एक लड़का था और यहाँ बात खेलकूद की नहीं हो रही थी तो दुनिया के अन्य सभी विषयों की तरह यह विषय भी बेकार एवं चर्चा करने लायक नहीं था। परन्तु स्थान और समय कि विवशता ने उसके हाथ बाँध दिए थे। "कभी चौकोज़, कभी दूध और कॉर्नफ्लेक्स, कभी ब्रेड-बटर" टें-फें ने कोमलता के साथ गर्दन हिलाते हुए कहा। नव्या की ओर जब दृष्टि डाली गई तो वह सरलता से बोली "अधिकतर परांठा और सब्जी, कभी दूध इत्यादि" "विनीत तू क्या खाकर आता है?" टें-फें ने पूछा। "पाँच रोटी दाल।" विनीत ने भावविहीन मुख से दोनों की ओर देखते हुए कहा और तब हमारा यह मुहावरा चरितार्थ हो गया।

January 29, 2009

पुस्तकालय और आलस्य

मेरी माँ के हमेशा कहे जाने वाले वचनों में 'आलस्य गरीबी की जड़ है' प्रमुख है। परन्तु शायद उन्हें यह जानकर आश्चर्य न होगा कि यह गरीबी के साथ - साथ उलाहना सुनने और लताड़े जाने का भी द्योतक है।
मैं यह सिद्ध नहीं करना चाह रही कि मैं दीन-हीन भाग्य की मारी हुई हूँ या हर कोई जुतियाता रहता है। न ही काव्या पन्त के मुख से खीझ की पराकाष्ठा में निकला यह वाक्य कि ' भैया हमें तो कुत्ता भी लात मारकर चले जाता है ' मुझपर सही बैठता है, परन्तु मैंने भी कई न सही कुछ दुत्कार की कठिन घड़ियाँ जीवन में झेली हैं।

पंतनगर विश्वविद्यालय का चार मंज़िला पुस्तकालय एशियाई महाद्वीप के कुछ सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक है। इसके बावजूद इसी विश्वविद्यालय के गृह-विज्ञान महाविद्यालय में अपना एक पुस्तकालय है। यह सोचने का विषय है कि इस प्रकार कि कृपा केवल इस महाविद्यालय पर क्यों की गई है, परन्तु अभी हम मूल विषय पर आते हुए यह बता दें कि वि.वि. के हर छात्र - छात्रा को दाखिला लेने पर पुस्तकालय से चार कार्ड प्राप्त होते हैं। यह मुझे भी हो सकते थे, पर लापरवाही और आलस्य मेरे दो भाइयों के समान मेरे साथ-साथ चले तो मैं सर्वथा इनको बनवाने का कष्ट न कर पाई। दूसरे वर्ष में फ़ाइन देकर कार्ड बनवाने का विचार मुझे कुछ सुहाया नहीं और तीसरा एवं चौथा वर्ष भी क्रमशः इसी प्रकार बीत गया।

अध्ययन पूर्ण होने पर वि.वि. में पढ़ रहे विद्यार्थी को एक 'नो-ड्यूज' नामक पर्चा मिलता है। यदि कोई यह प्रामाणित कर दे कि पंतनगर के 'नो-ड्यूज' से बड़ा भी कोई सरदर्द है तो मैं प्रतिज्ञा करती हूँ कि अपनी भविष्य में छपने वाली पुस्तक का विमोचन उसी से करवाउंगी। यह नो-ड्यूज़ सैकड़ों विभागों के सामने अलग-अलग प्रकार के जूते-चप्पल घिसने के पश्चात् पुस्तकालय से होता हुआ भी जाता है। वहाँ आप अपने कार्ड समर्पित कर दें और पुस्तकालय की मल्लिका [ जो हृदयविदारक रूप से एक ख़तरनाक महिला हैं ] के हस्ताक्षर आपके हुए समझिये।

मेरे समक्ष एक जटिल प्रश्न् था- 'कार्ड कहाँ से आए?' चतुराई दिखाते हुए जब मैंने यूँ ही नो-ड्यूज़ करवाने का प्रयत्न किया, तो कुछ समय तक मेरी कार्ड आवंटन संख्या [ जिसके लिए एक और कार्ड होता है ] ढूंढ-ढूंढ कर परेशान एवं भन्नाई पुस्तकालय की साम्राज्ञी यह पता चलने पर कि वह ऐतिहासिक कार्ड कभी बना ही न था, कर्कश आवाज़ में कुछ यूँ बोलीं - " कार्ड बनवाया ही नहीं आज तक? अब क्या करियेगा? हमनें अपनी बीस साल की नौकरी में आज तक ऐसा कोई नहीं देखा जिसने कार्ड न बनवाया हो। जाईये सेंट्रल लाइब्रेरी में पता कीजिये। कार्ड ही नहीं बनवाया है।"
सर उठाने में कष्ट तो था पर एक सरसरी निगाह इधर-उधर दौड़ाने पर यह जानकर संतोष हुआ कि मुझे अधिक लोगों ने न देखा था। बस कुछ हँसते हुए सहपाठी, कुछ अन्य पुस्तकालय कर्मी और तीस- पचास अचम्भे से मेरी ओर देखते हुए जूनियर्स।

January 28, 2009

मेहनत एवं भूल-चूक

[नरेन्द्र पन्त के द्वारा स्वयं को उससे भी ज़्यादा मूर्ख सिद्ध किए जाने के पश्चात् मूर्खता की दुनिया से परे हटकर यह लेख मैंने ऑरकुट में नहीं वरन् यहीं लिखा है। ]
यदि हम कहें कि हमें किसी मेहनती व्यक्ति का उदाहरण प्रस्तुत करना है और आप धीरुभाई , विजय माल्या इत्यादि की रट लगाना आरम्भ करें तो यह सर्वथा उचित नहीं होगा। स्टीवन लेविट के अनुसार जब हम किसी घटना या वाकये का अवलोकन करते हैं तो उसे बड़े ही सतही तौर पर देखते हैं। यह बात साधारण जन की भाँति हमपर भी लागू होती है।

यूँ तो कहा जाता है कि किसान बड़ा मेहनती होता है, परन्तु यह नहीं कि इस तथ्य की आड़ में हम अन्य मेहनती लोगों को उनका श्रेय देना भूल जाएँ। कहने का तात्पर्य यह है कि यहाँ बात रिक्शेवाले की हो रही है। यदि हम ध्यान दें तो पायेंगे कि मेहनत और लगन के साथ लोगों को उनके गंतव्य स्थान पर पहुँचाता हुआ यह रिक्शेवाला, दिनभर मेहनत करता है। रिक्शा एक तिपहिया वाहन है जिसे पेडल मारकर चलाया जाता है। पीछे दो या तीन लोगों के बैठने के लिए स्थान होता है एवं आगे वह गद्दी जिसमें मेहनतकश रिक्शेवाला बैठकर लोगों को ठेलता है।

शाम का समय था और सुहावनी हवा चल रही थी जो बिल्कुल भी बेमतलब नहीं लगती थी। कहानी की मुख्य पात्र मैं अपनी माँ, भाई , बुआ उनके बच्चों एवं अन्य परिजनों के साथ हल्द्वानी के बाज़ार में घूम रही थी। काफ़ी देर घूमने के पश्चात हमें ये आभास हुआ कि घर दूर है अतः वापस जाने के लिए मेहनतकश रिक्शेवाले की मदद तो लेनी ही पड़ेगी। इसीलिए हमने एक रिक्शेवाले को बुलाया और भावताव के पश्चात बुआ, माँ और तीन छोटे छोटे बच्चे रिक्शे पे सवार हो लिए। रिक्शेवाले की गद्दी के ठीक नीचे जो छोटी गद्दी होती है उसपर मेरा अधिपत्य हुआ करता था और कुछ भी हो जाए, मैं वहीं बैठती थी। तो अपने इस व्यवहार के अनुसार इस बार भी मैंने कुछ ऐसा ही किया। कुछ देर चलने के उपरांत मेरी माँ एवं बुआ ने यह इंगित किया कि जिस गद्दी पर मैं विराजमान हूँ वह कुछ ऊंची सी है। उन लोगों के ऐसा कहने पर मुझे भी यह बात सत्य प्रतीत हुई। तो मैंने निरीक्षण परीक्षण करने पर जाना कि मैं मेहनतकश रिक्शेवाले की गद्दी पर विराजित थी। रिक्शेवाला मेहनती होने के साथ साथ शांत स्वभाव का भी जान पड़ा, क्योंकि इतनी देर तक खड़े खड़े रिक्शा चलाने के उपरांत भी उसने मुझसे हटने को नहीं कहा था। एक और बात जिसका पता चला वो यह थी कि जब आप किसी हास्यास्पद स्थिति में हो तो भाई, बन्धु, माता... कोई भी साथ नहीं देता, क्योंकि सभी दिल खोलकर मुझपे हँसे थे.

January 27, 2009

Poignancy

I am disappointed with the notebooks of today. When you try writing with an ink pen on one side of the page, it shows on the other side. What are these guys making? Bloating papers? The stationary industry is to be pitied!! You might build big red buildings with stylishly written "staples" on it, but if you cannot give me a notebook in which I can happily write with an ink-pen... screw you.

January 21, 2009

परम मित्र

कभी कभी गुरुत्वाकर्षण के न होने पर भी दो मित्रों की मित्रता में दरार आ सकती है. परन्तु कारण यहाँ भी मिलता जुलता ही है.


आर्मी स्कूल में १९९८ में कक्षा आठ के छात्र-छात्राएं कुछ ज्यादा ही बातूनी हो चले थे. और अगर अतिशयोक्ति की जाए तो इसकी वजह से अनुशासन के पर्यायवाची आर्मी स्कूल की इमेज को गहरा झटका सा लग रहा था. अतः हमारी अध्यापिका ने यह सुनिश्चित किया कि या तो दो लड़को के बीच में एक लड़की बैठेगी या दो लड़कियों के बीच में एक लड़का. लड़का लड़की के भेद से अनभिज्ञ हमारा बातें करना निरंतर बहती हुई सरिता कि भाँति चलता रहा. कक्षा में सबसे ज्यादा शोर जिस कोने से आता था वह संयोग से कुछ उस जगह था जहाँ मैं और मेरी परम मित्र रागिनी के बीच में हिमांशु बैठता था एवं इसके ठीक आगे दो परम मित्रों राहुल और विवेक के बीच राशी. हमारी पढ़ाई की गाड़ी बातचीत के महत्त्वपूर्ण कार्य में विघ्न तो नहीं ही डाल रही थी अतः हम छः लोग प्रसन्नचित्त ही रहते थे.


विवेक बड़ा ही विनोदी स्वभाव का लड़का था एवं हर समय हँसी मज़ाक करना जैसे उसका कर्त्तव्य था. इसके विपरीत राहुल सदा ही शांत एवं गंभीर रहता था. एक दिन हमने देखा की राहुल कुछ रुष्ट सा है और विवेक से बात नहीं कर रहा है. हमने राहुल से कारण पूछा तो वह चुप रहा. फिर हमारी प्रश्न भरी आँखें विवेक की ओर मुड़ी और वह हमको देख कर मुस्कुरा दिया. थोड़ा और पूछने पर हमें पता चला की राहुल के रूठने का कारण गुरुत्वाकर्षण तो बिल्कुल नहीं था.


राहुल और विवेक एक ही इमारत में क्रमशः ऊपर नीचे रहते थे. पिछले दिन राहुल विवेक के घर खेलने आया और अपनी चप्पलें वहीं भूलकर ऊपर चला गया. विवेक ने जब यह देखा तो उसने एक अच्छा मित्र होने के नाते उसकी चप्पलें वापस लौटानी चाहीं. इन चप्पलों को लौटाने का सबसे सरल रास्ता विवेक को राहुल के बारामदे से दीख पड़ा. अब इसे संयोग कहें या राहुल का दुर्भाग्य विवेक के चप्पल ऊपर फेंकते ही राहुल अपने बारामदे में अवतरित हुआ. दोनों ही चप्पलों ने राहुल के सर को तबले की तरह बजा दिया. यह तो हम नहीं जानते की तबला बजने पर राहुल के मुख से जो संगीत निकला वह शास्त्रीय, लोक या आधुनिक था परन्तु राहुल ने विवेक से बोलना बंद कर दिया था.

January 20, 2009

क्रोध और गुरुत्वाकर्षण

क्रोध एवं गुरुत्वाकर्षण परस्पर सम्बंधित हैं. यह बात अजीब लगती है परन्तु सत्य है. इसका आभास मुझे बचपन से हो चला था.

बात तब की है जब हम नैनीताल में आशुतोष भवन में रहते थे जो कि एक चार मंजिली इमारत थी. इमारत के सामने एक छोटा सा मैदान था जिसपर मकान मालिक का पोता पियूष खडा था. पहली मंजिल के बरामदे पर कहानी का दूसरा पात्र राहुल (जिसे अगर मेरा भाई कहा जाए तो गलत नहीं होगा), खडा हुआ प्रकृति का आनंद ले रहा था.

यह संदेह का विषय है कि राहुल इस बात से अनभिज्ञ था कि पियूष नीचे खडा है. क्योकि राहुल एक सामान्य बालक था और देखने सुनने में भली प्रकार से सक्षम था अतः हम यह मान कर चलते हैं कि राहुल ने पियूष को देख ही लिया था. हम राहुल को एक लापरवाह लड़का भी मान सकते हैं क्योकि राहुल ने लापरवाही दिखाते हुए नीचे की ओर अपने मुख से एक द्रव बहाया अर्थात थूका. थूक ठीक पियूष के पास आकर गिरा. स्थायी क्रोध जो कि किसी को भी कभी भी अपना शिकार बना सकता है पियूष को पकड़ चुका था. इसी क्रोध के प्रभाव में पियूष ने बुद्धि लगाकर ऊपर की ओर थूक दिया. क्योकि पियूष एक छोटा बालक था अतः वह गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से अनभिज्ञ था और भगवान् ने भी पियूष के लिए इस सिद्धांत को बदलना ज़रूरी नहीं समझा. तो थूक ठीक वही आकर गिरा जहाँ से उसकी उत्पत्ति हुई थी, अर्थात पियूष की नाक के नीचे.

निष्कर्ष यह तो निकलता ही है की क्रोध भी सोच समझकर ही करना चाहिए साथ में यह भी की यदि आप कभी थूकना चाहें तो पहले गुरुत्वाकर्षण का भली प्रकार अध्यन कर लें.