मेरी माँ के हमेशा कहे जाने वाले वचनों में 'आलस्य गरीबी की जड़ है' प्रमुख है। परन्तु शायद उन्हें यह जानकर आश्चर्य न होगा कि यह गरीबी के साथ - साथ उलाहना सुनने और लताड़े जाने का भी द्योतक है।
मैं यह सिद्ध नहीं करना चाह रही कि मैं दीन-हीन भाग्य की मारी हुई हूँ या हर कोई जुतियाता रहता है। न ही काव्या पन्त के मुख से खीझ की पराकाष्ठा में निकला यह वाक्य कि ' भैया हमें तो कुत्ता भी लात मारकर चले जाता है ' मुझपर सही बैठता है, परन्तु मैंने भी कई न सही कुछ दुत्कार की कठिन घड़ियाँ जीवन में झेली हैं।
पंतनगर विश्वविद्यालय का चार मंज़िला पुस्तकालय एशियाई महाद्वीप के कुछ सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक है। इसके बावजूद इसी विश्वविद्यालय के गृह-विज्ञान महाविद्यालय में अपना एक पुस्तकालय है। यह सोचने का विषय है कि इस प्रकार कि कृपा केवल इस महाविद्यालय पर क्यों की गई है, परन्तु अभी हम मूल विषय पर आते हुए यह बता दें कि वि.वि. के हर छात्र - छात्रा को दाखिला लेने पर पुस्तकालय से चार कार्ड प्राप्त होते हैं। यह मुझे भी हो सकते थे, पर लापरवाही और आलस्य मेरे दो भाइयों के समान मेरे साथ-साथ चले तो मैं सर्वथा इनको बनवाने का कष्ट न कर पाई। दूसरे वर्ष में फ़ाइन देकर कार्ड बनवाने का विचार मुझे कुछ सुहाया नहीं और तीसरा एवं चौथा वर्ष भी क्रमशः इसी प्रकार बीत गया।
अध्ययन पूर्ण होने पर वि.वि. में पढ़ रहे विद्यार्थी को एक 'नो-ड्यूज' नामक पर्चा मिलता है। यदि कोई यह प्रामाणित कर दे कि पंतनगर के 'नो-ड्यूज' से बड़ा भी कोई सरदर्द है तो मैं प्रतिज्ञा करती हूँ कि अपनी भविष्य में छपने वाली पुस्तक का विमोचन उसी से करवाउंगी। यह नो-ड्यूज़ सैकड़ों विभागों के सामने अलग-अलग प्रकार के जूते-चप्पल घिसने के पश्चात् पुस्तकालय से होता हुआ भी जाता है। वहाँ आप अपने कार्ड समर्पित कर दें और पुस्तकालय की मल्लिका [ जो हृदयविदारक रूप से एक ख़तरनाक महिला हैं ] के हस्ताक्षर आपके हुए समझिये।
मेरे समक्ष एक जटिल प्रश्न् था- 'कार्ड कहाँ से आए?' चतुराई दिखाते हुए जब मैंने यूँ ही नो-ड्यूज़ करवाने का प्रयत्न किया, तो कुछ समय तक मेरी कार्ड आवंटन संख्या [ जिसके लिए एक और कार्ड होता है ] ढूंढ-ढूंढ कर परेशान एवं भन्नाई पुस्तकालय की साम्राज्ञी यह पता चलने पर कि वह ऐतिहासिक कार्ड कभी बना ही न था, कर्कश आवाज़ में कुछ यूँ बोलीं - " कार्ड बनवाया ही नहीं आज तक? अब क्या करियेगा? हमनें अपनी बीस साल की नौकरी में आज तक ऐसा कोई नहीं देखा जिसने कार्ड न बनवाया हो। जाईये सेंट्रल लाइब्रेरी में पता कीजिये। कार्ड ही नहीं बनवाया है।"
सर उठाने में कष्ट तो था पर एक सरसरी निगाह इधर-उधर दौड़ाने पर यह जानकर संतोष हुआ कि मुझे अधिक लोगों ने न देखा था। बस कुछ हँसते हुए सहपाठी, कुछ अन्य पुस्तकालय कर्मी और तीस- पचास अचम्भे से मेरी ओर देखते हुए जूनियर्स।
मैं यह सिद्ध नहीं करना चाह रही कि मैं दीन-हीन भाग्य की मारी हुई हूँ या हर कोई जुतियाता रहता है। न ही काव्या पन्त के मुख से खीझ की पराकाष्ठा में निकला यह वाक्य कि ' भैया हमें तो कुत्ता भी लात मारकर चले जाता है ' मुझपर सही बैठता है, परन्तु मैंने भी कई न सही कुछ दुत्कार की कठिन घड़ियाँ जीवन में झेली हैं।
पंतनगर विश्वविद्यालय का चार मंज़िला पुस्तकालय एशियाई महाद्वीप के कुछ सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक है। इसके बावजूद इसी विश्वविद्यालय के गृह-विज्ञान महाविद्यालय में अपना एक पुस्तकालय है। यह सोचने का विषय है कि इस प्रकार कि कृपा केवल इस महाविद्यालय पर क्यों की गई है, परन्तु अभी हम मूल विषय पर आते हुए यह बता दें कि वि.वि. के हर छात्र - छात्रा को दाखिला लेने पर पुस्तकालय से चार कार्ड प्राप्त होते हैं। यह मुझे भी हो सकते थे, पर लापरवाही और आलस्य मेरे दो भाइयों के समान मेरे साथ-साथ चले तो मैं सर्वथा इनको बनवाने का कष्ट न कर पाई। दूसरे वर्ष में फ़ाइन देकर कार्ड बनवाने का विचार मुझे कुछ सुहाया नहीं और तीसरा एवं चौथा वर्ष भी क्रमशः इसी प्रकार बीत गया।
अध्ययन पूर्ण होने पर वि.वि. में पढ़ रहे विद्यार्थी को एक 'नो-ड्यूज' नामक पर्चा मिलता है। यदि कोई यह प्रामाणित कर दे कि पंतनगर के 'नो-ड्यूज' से बड़ा भी कोई सरदर्द है तो मैं प्रतिज्ञा करती हूँ कि अपनी भविष्य में छपने वाली पुस्तक का विमोचन उसी से करवाउंगी। यह नो-ड्यूज़ सैकड़ों विभागों के सामने अलग-अलग प्रकार के जूते-चप्पल घिसने के पश्चात् पुस्तकालय से होता हुआ भी जाता है। वहाँ आप अपने कार्ड समर्पित कर दें और पुस्तकालय की मल्लिका [ जो हृदयविदारक रूप से एक ख़तरनाक महिला हैं ] के हस्ताक्षर आपके हुए समझिये।
मेरे समक्ष एक जटिल प्रश्न् था- 'कार्ड कहाँ से आए?' चतुराई दिखाते हुए जब मैंने यूँ ही नो-ड्यूज़ करवाने का प्रयत्न किया, तो कुछ समय तक मेरी कार्ड आवंटन संख्या [ जिसके लिए एक और कार्ड होता है ] ढूंढ-ढूंढ कर परेशान एवं भन्नाई पुस्तकालय की साम्राज्ञी यह पता चलने पर कि वह ऐतिहासिक कार्ड कभी बना ही न था, कर्कश आवाज़ में कुछ यूँ बोलीं - " कार्ड बनवाया ही नहीं आज तक? अब क्या करियेगा? हमनें अपनी बीस साल की नौकरी में आज तक ऐसा कोई नहीं देखा जिसने कार्ड न बनवाया हो। जाईये सेंट्रल लाइब्रेरी में पता कीजिये। कार्ड ही नहीं बनवाया है।"
सर उठाने में कष्ट तो था पर एक सरसरी निगाह इधर-उधर दौड़ाने पर यह जानकर संतोष हुआ कि मुझे अधिक लोगों ने न देखा था। बस कुछ हँसते हुए सहपाठी, कुछ अन्य पुस्तकालय कर्मी और तीस- पचास अचम्भे से मेरी ओर देखते हुए जूनियर्स।
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