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April 02, 2009

Beta zara yahaan aana

The other day I was watching this Russel Peters' stand up act and he discussed how parents could embarrass their kids in front of relatives and acquaintances by saying "Come here beta.. show uncle your dance." It was familiarly funny. Because it has happened to me, you, her and him. It happens!

It has happened so many times with me. Some relative is at your place for a visit and everyone is sitting and chatting when my mom suddenly comes up with "Arey Richa to kaafi poems likhti hai. Richa, ja apni poem waali diary leke aa zara. Dikha to aunty ko." So you get into this 'marta kya na karta ' situation and bring it.

Aunty: (after reading) haan achchi likhi hain.
(I never understood whether this was supposed to be taken as a compliment or a formal forced praise. There was once this uncle who stylishly said "haan likhi to kaafi achchi hain" and wore an air of none less than Dinkar or Maithilisharan Gupt. Too bad, I felt so bad about myself.)
Me: Thank you aunty.
Mom: Arey ye to kaafi kuch likhti rehti hai. Abhi isne dadaji pe bohot hi achchi kahaani likhi hai. Richa dikha aunty ko.

[Hence I shove out all my plans to ever get a book published. Who will read it? Sabne to ghar pe aake padh hi li hai.]

But there are things that can be more embarrassing. Singing or dancing for most parts. I really appreciate God for not giving me that natural influx of a dancer. "Beta dance karke dikhao" is just too much to take. I remember my mom once asked my brother to dance in front of bua, but he just wouldn't. Nothing could pursue him. Well you can think of defying them for once but the aftereffects can be dangerous. You are in front of a grumpy mother who will tell you how much you disrespect her and never agree to whatever she has to say and you will keep feeling guilty for the rest of the day.

Well, it is not that they want you to be uncomfortable or something. They just don't realise. They are too happy about the talent of their child to see whether such a situation abashed the kid.
I recognised this fact when a friend of mine came to see me. While talking to her I turned to my brother and asked him to play the flute which of course he did not.I pleaded, requested and begged. But he didn't. Later on I realised.. I was my mom!

February 15, 2009

नक़ल की अक्ल

जब कभी भी मेरे सहपाठी या अन्य अनुज छात्र मुझसे यह कहते हैं कि आप बड़ी क्रिएटिव हैं तो यह मुझे सोचने पर विवश कर देता है कि इसे मैं सम्मान का विषय समझूँ या इस वाक्य के पीछे कोई ऐसा कटाक्ष छुपा है जो मुझे ढूंढें नहीं मिल रहा। देखा जाए तो सृजनात्मक होना एक सदगुण ही है, परन्तु इसका प्रयोग आपको हुसैन से लेकर नटवरलाल... सबकुछ बना सकता है।

जब मैं दसवीं कक्षा में पहुँची तो ट्यूशन पढ़ना चलन में होने के कारण मेरी माँ ने मुझे भी 'विद्यालय के उपरांत घर के अलावा किसी और स्थान' पर पढ़ने के लिए भेजना उचित समझा। अतः मैं अपने घर के पड़ोस में ही, हिमांशु भैया के घर ट्यूशन पढ़ने जाने लगी। भईया क्योंकि अभी-अभी परास्नातक की पढ़ाई करके निकले ही थे तो वे हम लोगों से घुले-मिले हुए थे एवं खडूस अध्यापक तो बिल्कुल न थे। इस कारण पढ़ाई और बातचीत के बीच समय कब बीत जाता था पता नहीं चलता था। जोड़-तोड़ ये था कि पढ़ने वाले सभी बच्चे काफ़ी प्रसन्न थे।

हिमांशु भईया हर रविवार कि सुबह हमारी परीक्षा लेते थे। परीक्षा देते समय थोड़ा बहुत इधर-उधर से पूछा जाना हमारे सिद्धांतो को किंचित मात्र भी ठेस नहीं पहुँचाता था। अतः इसी कार्य में तन्मयता से लिप्त सुमित और प्रशांत जब भईया द्बारा पकड़े गए तो नक़ल पर चर्चा चल उठी। चर्चा में उन सभी विधियों का वर्णन किया जा रहा था जिसके द्वारा छात्र अपनी अंकतालिका को सुंदर बनाने का प्रयत्न करते हैं। जब हमने विद्यालय में प्रचलित कुछ विधियों का ब्यौरा दिया तो भईया बोले - " ये सब तो आम लोग करते हैं। आजकल नक़ल के तरीकों में नवीनता है, सृजनात्मकता है। अभी कुछ ही दिनों पहले मेरे बड़े भाई किसी कॉलेज में परीक्षक बनकर गए जहाँ उन्होंने नक़ल का एक अनूठा किस्सा पकड़ा। एक परीक्षार्थी पर जब उन्हें संदेह हुआ तो उन्होंने उसकी तालाशी ली। जगह-जगह से अनेकानेक कवियों और लेखकों की जीवनियाँ निकलीं। जब उसका मुँह खुलवाया गया तो उसमें एक छोटा सा पर्चा निकला जिसपर अति लघु लिखाई में अंकित था- कबीरदास दाएं मोजे में, सूरदास बायें मोजे में, और रहीम पैंट के पीछे वाली जेब में।

February 14, 2009

लड़कियां और लड़के

हाल ही में मुहावरे और लोकोक्तियों का अध्ययन करते-करते मेरी दृष्टि 'मुँह खुला का खुला रह जाना' पर पड़ी। उदाहरण सोचने पर एक वाक्य नहीं वरन कई वाक्यों का एक समूह जो कि एक छोटे से वृत्तान्त का वर्णन करता है मुझे स्मरण हो आया।

बात कक्षा आठ की ही है, और संयोग से विद्यालय भी आर्मी स्कूल ही है। परन्तु संयोग इतना भी नहीं गहराया कि कहानी के पात्र भी हम ही हों। इसी बातूनी कक्षा में एक समय में विनीत कुमार के दायें-बाएँ राशि एवं नव्या नामक दो लड़कियां बैठा करती थीं। इनकी बातचीत की गाड़ी भी किसी न किसी प्रकार चल ही रही थी। राशि इस प्रकार की लड़कियों में गिनी जा सकती है जिन्हें परमोपरम मित्र की भाषा में टें-फें कहा जाता है। नव्या एक सीधी सरल सी लड़की थी। विनीत एक लड़का था।

हम भारतीयों ने गोरों के अनुसरण में उनके भोजन की पद्धति भी अपना ली है हम दिनभर में तीन अथवा चार बार खाना खाते हैं। अतः 'दो वक्त की रोटी' सरीखे जुमले अपनी मौलिकता खो चुके हैं। तो एक दिन इन तीनों के मध्य चर्चा का विषय था सुबह का नाश्ता। 'कौन सुबह क्या खाकर आता है' तीनों परस्पर इस विषय पर गंभीरता से अपने विचार प्रकट कर रहे थे। जैसा कि बताया गया है कि विनीत एक लड़का था और यहाँ बात खेलकूद की नहीं हो रही थी तो दुनिया के अन्य सभी विषयों की तरह यह विषय भी बेकार एवं चर्चा करने लायक नहीं था। परन्तु स्थान और समय कि विवशता ने उसके हाथ बाँध दिए थे। "कभी चौकोज़, कभी दूध और कॉर्नफ्लेक्स, कभी ब्रेड-बटर" टें-फें ने कोमलता के साथ गर्दन हिलाते हुए कहा। नव्या की ओर जब दृष्टि डाली गई तो वह सरलता से बोली "अधिकतर परांठा और सब्जी, कभी दूध इत्यादि" "विनीत तू क्या खाकर आता है?" टें-फें ने पूछा। "पाँच रोटी दाल।" विनीत ने भावविहीन मुख से दोनों की ओर देखते हुए कहा और तब हमारा यह मुहावरा चरितार्थ हो गया।

January 28, 2009

मेहनत एवं भूल-चूक

[नरेन्द्र पन्त के द्वारा स्वयं को उससे भी ज़्यादा मूर्ख सिद्ध किए जाने के पश्चात् मूर्खता की दुनिया से परे हटकर यह लेख मैंने ऑरकुट में नहीं वरन् यहीं लिखा है। ]
यदि हम कहें कि हमें किसी मेहनती व्यक्ति का उदाहरण प्रस्तुत करना है और आप धीरुभाई , विजय माल्या इत्यादि की रट लगाना आरम्भ करें तो यह सर्वथा उचित नहीं होगा। स्टीवन लेविट के अनुसार जब हम किसी घटना या वाकये का अवलोकन करते हैं तो उसे बड़े ही सतही तौर पर देखते हैं। यह बात साधारण जन की भाँति हमपर भी लागू होती है।

यूँ तो कहा जाता है कि किसान बड़ा मेहनती होता है, परन्तु यह नहीं कि इस तथ्य की आड़ में हम अन्य मेहनती लोगों को उनका श्रेय देना भूल जाएँ। कहने का तात्पर्य यह है कि यहाँ बात रिक्शेवाले की हो रही है। यदि हम ध्यान दें तो पायेंगे कि मेहनत और लगन के साथ लोगों को उनके गंतव्य स्थान पर पहुँचाता हुआ यह रिक्शेवाला, दिनभर मेहनत करता है। रिक्शा एक तिपहिया वाहन है जिसे पेडल मारकर चलाया जाता है। पीछे दो या तीन लोगों के बैठने के लिए स्थान होता है एवं आगे वह गद्दी जिसमें मेहनतकश रिक्शेवाला बैठकर लोगों को ठेलता है।

शाम का समय था और सुहावनी हवा चल रही थी जो बिल्कुल भी बेमतलब नहीं लगती थी। कहानी की मुख्य पात्र मैं अपनी माँ, भाई , बुआ उनके बच्चों एवं अन्य परिजनों के साथ हल्द्वानी के बाज़ार में घूम रही थी। काफ़ी देर घूमने के पश्चात हमें ये आभास हुआ कि घर दूर है अतः वापस जाने के लिए मेहनतकश रिक्शेवाले की मदद तो लेनी ही पड़ेगी। इसीलिए हमने एक रिक्शेवाले को बुलाया और भावताव के पश्चात बुआ, माँ और तीन छोटे छोटे बच्चे रिक्शे पे सवार हो लिए। रिक्शेवाले की गद्दी के ठीक नीचे जो छोटी गद्दी होती है उसपर मेरा अधिपत्य हुआ करता था और कुछ भी हो जाए, मैं वहीं बैठती थी। तो अपने इस व्यवहार के अनुसार इस बार भी मैंने कुछ ऐसा ही किया। कुछ देर चलने के उपरांत मेरी माँ एवं बुआ ने यह इंगित किया कि जिस गद्दी पर मैं विराजमान हूँ वह कुछ ऊंची सी है। उन लोगों के ऐसा कहने पर मुझे भी यह बात सत्य प्रतीत हुई। तो मैंने निरीक्षण परीक्षण करने पर जाना कि मैं मेहनतकश रिक्शेवाले की गद्दी पर विराजित थी। रिक्शेवाला मेहनती होने के साथ साथ शांत स्वभाव का भी जान पड़ा, क्योंकि इतनी देर तक खड़े खड़े रिक्शा चलाने के उपरांत भी उसने मुझसे हटने को नहीं कहा था। एक और बात जिसका पता चला वो यह थी कि जब आप किसी हास्यास्पद स्थिति में हो तो भाई, बन्धु, माता... कोई भी साथ नहीं देता, क्योंकि सभी दिल खोलकर मुझपे हँसे थे.