जब कभी भी मेरे सहपाठी या अन्य अनुज छात्र मुझसे यह कहते हैं कि आप बड़ी क्रिएटिव हैं तो यह मुझे सोचने पर विवश कर देता है कि इसे मैं सम्मान का विषय समझूँ या इस वाक्य के पीछे कोई ऐसा कटाक्ष छुपा है जो मुझे ढूंढें नहीं मिल रहा। देखा जाए तो सृजनात्मक होना एक सदगुण ही है, परन्तु इसका प्रयोग आपको हुसैन से लेकर नटवरलाल... सबकुछ बना सकता है।
जब मैं दसवीं कक्षा में पहुँची तो ट्यूशन पढ़ना चलन में होने के कारण मेरी माँ ने मुझे भी 'विद्यालय के उपरांत घर के अलावा किसी और स्थान' पर पढ़ने के लिए भेजना उचित समझा। अतः मैं अपने घर के पड़ोस में ही, हिमांशु भैया के घर ट्यूशन पढ़ने जाने लगी। भईया क्योंकि अभी-अभी परास्नातक की पढ़ाई करके निकले ही थे तो वे हम लोगों से घुले-मिले हुए थे एवं खडूस अध्यापक तो बिल्कुल न थे। इस कारण पढ़ाई और बातचीत के बीच समय कब बीत जाता था पता नहीं चलता था। जोड़-तोड़ ये था कि पढ़ने वाले सभी बच्चे काफ़ी प्रसन्न थे।
हिमांशु भईया हर रविवार कि सुबह हमारी परीक्षा लेते थे। परीक्षा देते समय थोड़ा बहुत इधर-उधर से पूछा जाना हमारे सिद्धांतो को किंचित मात्र भी ठेस नहीं पहुँचाता था। अतः इसी कार्य में तन्मयता से लिप्त सुमित और प्रशांत जब भईया द्बारा पकड़े गए तो नक़ल पर चर्चा चल उठी। चर्चा में उन सभी विधियों का वर्णन किया जा रहा था जिसके द्वारा छात्र अपनी अंकतालिका को सुंदर बनाने का प्रयत्न करते हैं। जब हमने विद्यालय में प्रचलित कुछ विधियों का ब्यौरा दिया तो भईया बोले - " ये सब तो आम लोग करते हैं। आजकल नक़ल के तरीकों में नवीनता है, सृजनात्मकता है। अभी कुछ ही दिनों पहले मेरे बड़े भाई किसी कॉलेज में परीक्षक बनकर गए जहाँ उन्होंने नक़ल का एक अनूठा किस्सा पकड़ा। एक परीक्षार्थी पर जब उन्हें संदेह हुआ तो उन्होंने उसकी तालाशी ली। जगह-जगह से अनेकानेक कवियों और लेखकों की जीवनियाँ निकलीं। जब उसका मुँह खुलवाया गया तो उसमें एक छोटा सा पर्चा निकला जिसपर अति लघु लिखाई में अंकित था- कबीरदास दाएं मोजे में, सूरदास बायें मोजे में, और रहीम पैंट के पीछे वाली जेब में।
जब मैं दसवीं कक्षा में पहुँची तो ट्यूशन पढ़ना चलन में होने के कारण मेरी माँ ने मुझे भी 'विद्यालय के उपरांत घर के अलावा किसी और स्थान' पर पढ़ने के लिए भेजना उचित समझा। अतः मैं अपने घर के पड़ोस में ही, हिमांशु भैया के घर ट्यूशन पढ़ने जाने लगी। भईया क्योंकि अभी-अभी परास्नातक की पढ़ाई करके निकले ही थे तो वे हम लोगों से घुले-मिले हुए थे एवं खडूस अध्यापक तो बिल्कुल न थे। इस कारण पढ़ाई और बातचीत के बीच समय कब बीत जाता था पता नहीं चलता था। जोड़-तोड़ ये था कि पढ़ने वाले सभी बच्चे काफ़ी प्रसन्न थे।
हिमांशु भईया हर रविवार कि सुबह हमारी परीक्षा लेते थे। परीक्षा देते समय थोड़ा बहुत इधर-उधर से पूछा जाना हमारे सिद्धांतो को किंचित मात्र भी ठेस नहीं पहुँचाता था। अतः इसी कार्य में तन्मयता से लिप्त सुमित और प्रशांत जब भईया द्बारा पकड़े गए तो नक़ल पर चर्चा चल उठी। चर्चा में उन सभी विधियों का वर्णन किया जा रहा था जिसके द्वारा छात्र अपनी अंकतालिका को सुंदर बनाने का प्रयत्न करते हैं। जब हमने विद्यालय में प्रचलित कुछ विधियों का ब्यौरा दिया तो भईया बोले - " ये सब तो आम लोग करते हैं। आजकल नक़ल के तरीकों में नवीनता है, सृजनात्मकता है। अभी कुछ ही दिनों पहले मेरे बड़े भाई किसी कॉलेज में परीक्षक बनकर गए जहाँ उन्होंने नक़ल का एक अनूठा किस्सा पकड़ा। एक परीक्षार्थी पर जब उन्हें संदेह हुआ तो उन्होंने उसकी तालाशी ली। जगह-जगह से अनेकानेक कवियों और लेखकों की जीवनियाँ निकलीं। जब उसका मुँह खुलवाया गया तो उसमें एक छोटा सा पर्चा निकला जिसपर अति लघु लिखाई में अंकित था- कबीरदास दाएं मोजे में, सूरदास बायें मोजे में, और रहीम पैंट के पीछे वाली जेब में।
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