February 24, 2009

समय

समय यदि कभी मित्र है तो प्रतिद्वंदी भी। अनुभव देता है तो परस्पर त्रुटियों का बोध करा चोट भी खिलाता है।

बचपन में धूल के बदल उड़ाते, निश्चिंतता को ओढे, इसी समय के समक्ष अब सर्वथा संसार की परिभाषा ही बदली सी मालूम होती है। कच्ची वीथिकाओं पर चीड़ और देवदार के वृक्षों की छाँव के तले चलते हम क्या कभी इस आने वाले जीवन की कल्पना भी करते? हरी काई की मोटी परत से जमी, सड़क के साथ दौड़ती दीवार जो अब दृष्टि का उत्सव है तब साधारण दीवार ही लगती थी। एक छोर से दौड़कर आता हुआ श्वेत कोहरा तब उजली सुनहली चादर नहीं लगता था।

गोधूली में पत्थर की चौड़ी पटालों पर खेलते हुए हमनें इन कंक्रीट के जंगलों का स्वप्न तो न देखा था।

पहाडों से पलायन करते हम अपने साथ परस्पर उसका एक अंश ढहाकर ले आते हैं। इनसे अलग होने का खेद अकथनीय है, अवाच्य है, किसी दूसरे व्यक्ति के लिए अकल्पनीय है।

No comments: