इस लेख के दो प्रमुख मुद्दे हैं। पहला यह कि गोरे बड़े ही दूरगामी थे। भारत से जाते-जाते अपनी अंग्रेजियत यहाँ रोपकर चले गए, जिसकी लहलहाती फ़सल आजकल के नवजवानों के रूप में हम देखते ही हैं। दूसरा यह की मुझे सादा दूध पीना बड़ा ही कष्टकारी लगता है। जब तक उसमें भली प्रकार कुछ ऐसा न मिला हो, जिससे दूध का वास्तविक स्वाद जाता रहे तब तक उसे पीना मेरे लिए अकल्पनीय है। एक तथ्य जो इस किस्से से सामने आएगा वो यह भी है कि मैं अपने आप को तीसमार-खाँ समझती थी जो कि एक भ्रम् निकला। इस भ्रम् को तोड़ने में सहायक रहे दूध और अंग्रेजों की बोई हुई फ़सल।
गोधूली का समय था और मैं अपने परमोपरम मित्र के साथ कैफे कॉफी डे में बैठी गंभीर चर्चा में निमग्न थी। अंग्रेज़ों द्बारा बोए गए बीज की एक पैदावार तभी एक छोटी पुस्तक और कलम लेकर मुस्कुराता हुआ हमारे वार्तालाप को भेदता सामने खड़ा हुआ। उसे प्रसन्न करने के लिए मैंने उसे एक हॉट-चॉकलेट लाने का निर्देश दिया जो कि एक पेय पदार्थ है। इसमें गर्म दूध में चॉकलेट मिश्रित होने के कारण मैं निश्चिंतता से उसे पी जाती हूँ।
परन्तु इस हॉट-चॉकलेट के आगमन पर मुझे पता चला कि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था। चॉकलेट का कहीं अता-पता नहीं था और दूध की सफेदी उजाला जैसी न सही, मुझे कष्ट तो दे ही रही थी। इसे पीने में स्वयं को असमर्थ पाते हुए मैंने पुस्तिका लिए हुए व्यक्ति को पुनः बुलवाया। अपने जहाँ-तहाँ हास-परिहास करने वाले स्वभाव के अहंकार में डूबी हुई मैं उससे बोली- ' भैया इस हॉट-चॉकलेट में बस हॉट ही हॉट है, चॉकलेट तो है ही नहीं।'
यह सुनकर अश्राव्य सी आवाज़ में जब वह अंग्रेज़ी में कुछ बडबडाया तो मुझे लगा कि मेरा कार्य सफल हुआ है और मैंने प्रसन्नता में सर हिला दिया। कुछ ही देर में मेरी प्रसन्नता को छिन्न-भिन्न करता वह उस हल्के श्वेतवर्ण दूध को और गर्म कर ले आया।
परमोपरम मित्र ने स्थिति का लाभ लेते हुए आनंदविभोर होकर कहा- 'और मारो सर्कास्टिक कमेंट्स'। मेरा घमंड तो चूर हुआ ही साथ में यह भी पता चला कि अंग्रेज़ों के इस राष्ट्र में हिन्दी का प्रयोग वर्जित है।
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