समय यदि कभी मित्र है तो प्रतिद्वंदी भी। अनुभव देता है तो परस्पर त्रुटियों का बोध करा चोट भी खिलाता है।
बचपन में धूल के बदल उड़ाते, निश्चिंतता को ओढे, इसी समय के समक्ष अब सर्वथा संसार की परिभाषा ही बदली सी मालूम होती है। कच्ची वीथिकाओं पर चीड़ और देवदार के वृक्षों की छाँव के तले चलते हम क्या कभी इस आने वाले जीवन की कल्पना भी करते? हरी काई की मोटी परत से जमी, सड़क के साथ दौड़ती दीवार जो अब दृष्टि का उत्सव है तब साधारण दीवार ही लगती थी। एक छोर से दौड़कर आता हुआ श्वेत कोहरा तब उजली सुनहली चादर नहीं लगता था।
गोधूली में पत्थर की चौड़ी पटालों पर खेलते हुए हमनें इन कंक्रीट के जंगलों का स्वप्न तो न देखा था।
पहाडों से पलायन करते हम अपने साथ परस्पर उसका एक अंश ढहाकर ले आते हैं। इनसे अलग होने का खेद अकथनीय है, अवाच्य है, किसी दूसरे व्यक्ति के लिए अकल्पनीय है।
February 24, 2009
February 23, 2009
Typical Mom Characteristics
The other day we sat down discussing about how moms are perennially fed up of all the हरकतें and ड्रामे that we do during our childhoods. We found out that be it any place these are the typical dialogues that moms use with slight differences:
1. When fathers come searching for some xyz thing, can't find it and ask for it in frustration :
Papa: "Fridge ke upar jo pen rakhi hui thi wo kahaan gayi?"
Mummy: " arey wahin hogi.."
Papa: "arey nahi hai yaar."
Meanwhile mummy comes looking for it and cannot find it.
Mummy: "Maine to yahin rakhi thi. Ye bachchon ne kahin idhar udhar kar di hogi."
Ilzaam is invariably always on the bachchas.
2. Scene changes to sabzi market where mom has dragged us using emotional blackmails of all sorts " Mere saath kyon jaaoge ab tum bazaar, ab to bade ho gaye ho tum. Mummy ke saath jaane mein sharam aati hai.."
So here we are now loaded with sabzi of all colours and shapes. (Poore mahine ki khareed li hain, kya bharosa agli baar bachche saath mein aaye ya nahi)
Mummy: Richa zara auto bula jaldi se.
I go and talk to the autowala. Meanwhile mom comes and dumps the truckloads of sabzi in the auto.
Mummy: Bhaiya zara rukna thode aloo lene hain.
Autowala: Madam time jaata hai.
Me: Mummy ho gaya ab.. itna khareed k chain nahi aaya?
Mummy: Chup reh tu. (to autowala) bhaiya bas 2 min hi toh rukna hai.
Finally mummy wins and aloo ka bora is loaded in the auto.
On the way back mummy looks at me and says " Ye Tilak road mein gajak bade achche milte hain. Richa zara auto rukwana to "
Grrrrrr......
3. Now this is inevitable.. you cannot stop moms from doing this..
Mummy: "Itni der se dekh rahi hoon, idhar udhar idhar udhar ghoomne mein lagi hai, padhai kyon nahi kar leti hai."
Me: "abhi kar loongi na thodi der mein."
Mummy: "Neeche Ashu Arpan ko dekho, kitna kehna maante hain apni mummy ka. Ek tum ho. Meri koi baat hi nahi sunte."
Me: "unhi ko bana lo fir apne bachche.
Mummy: "Tumse to kuch kehna hi bekaar hai."
4. This is when you come back on vacations. First few days mom gets busy making good food. When a week is over things change.. 7 baje hi 9 baj jaate hain.
Its 7.00 in the morning and while you think you are blissfully asleep you hear this..
"Richaaaaaaaa uth ja. Kabtak soi rahegi? 9 baj gaye hain. Jaldi uth."
Me: "haan uth rahi hoon." (n I go back to sleep again.)
Mom enters the room shouts again.
Me: "Chii yaar mummy sone do na."
Mom: "aadha din beet gaya hai. Tum log soye pade ho. Chalo uth jaao."
While leaving the room if its summer time, mom will switch off the fan, if its winter then she will take your rajai along with her.
There are numerous other cute things about moms that always were and will be :)
1. When fathers come searching for some xyz thing, can't find it and ask for it in frustration :
Papa: "Fridge ke upar jo pen rakhi hui thi wo kahaan gayi?"
Mummy: " arey wahin hogi.."
Papa: "arey nahi hai yaar."
Meanwhile mummy comes looking for it and cannot find it.
Mummy: "Maine to yahin rakhi thi. Ye bachchon ne kahin idhar udhar kar di hogi."
Ilzaam is invariably always on the bachchas.
2. Scene changes to sabzi market where mom has dragged us using emotional blackmails of all sorts " Mere saath kyon jaaoge ab tum bazaar, ab to bade ho gaye ho tum. Mummy ke saath jaane mein sharam aati hai.."
So here we are now loaded with sabzi of all colours and shapes. (Poore mahine ki khareed li hain, kya bharosa agli baar bachche saath mein aaye ya nahi)
Mummy: Richa zara auto bula jaldi se.
I go and talk to the autowala. Meanwhile mom comes and dumps the truckloads of sabzi in the auto.
Mummy: Bhaiya zara rukna thode aloo lene hain.
Autowala: Madam time jaata hai.
Me: Mummy ho gaya ab.. itna khareed k chain nahi aaya?
Mummy: Chup reh tu. (to autowala) bhaiya bas 2 min hi toh rukna hai.
Finally mummy wins and aloo ka bora is loaded in the auto.
On the way back mummy looks at me and says " Ye Tilak road mein gajak bade achche milte hain. Richa zara auto rukwana to "
Grrrrrr......
3. Now this is inevitable.. you cannot stop moms from doing this..
Mummy: "Itni der se dekh rahi hoon, idhar udhar idhar udhar ghoomne mein lagi hai, padhai kyon nahi kar leti hai."
Me: "abhi kar loongi na thodi der mein."
Mummy: "Neeche Ashu Arpan ko dekho, kitna kehna maante hain apni mummy ka. Ek tum ho. Meri koi baat hi nahi sunte."
Me: "unhi ko bana lo fir apne bachche.
Mummy: "Tumse to kuch kehna hi bekaar hai."
4. This is when you come back on vacations. First few days mom gets busy making good food. When a week is over things change.. 7 baje hi 9 baj jaate hain.
Its 7.00 in the morning and while you think you are blissfully asleep you hear this..
"Richaaaaaaaa uth ja. Kabtak soi rahegi? 9 baj gaye hain. Jaldi uth."
Me: "haan uth rahi hoon." (n I go back to sleep again.)
Mom enters the room shouts again.
Me: "Chii yaar mummy sone do na."
Mom: "aadha din beet gaya hai. Tum log soye pade ho. Chalo uth jaao."
While leaving the room if its summer time, mom will switch off the fan, if its winter then she will take your rajai along with her.
There are numerous other cute things about moms that always were and will be :)
February 17, 2009
अंग्रेजों के चोंचले
इस लेख के दो प्रमुख मुद्दे हैं। पहला यह कि गोरे बड़े ही दूरगामी थे। भारत से जाते-जाते अपनी अंग्रेजियत यहाँ रोपकर चले गए, जिसकी लहलहाती फ़सल आजकल के नवजवानों के रूप में हम देखते ही हैं। दूसरा यह की मुझे सादा दूध पीना बड़ा ही कष्टकारी लगता है। जब तक उसमें भली प्रकार कुछ ऐसा न मिला हो, जिससे दूध का वास्तविक स्वाद जाता रहे तब तक उसे पीना मेरे लिए अकल्पनीय है। एक तथ्य जो इस किस्से से सामने आएगा वो यह भी है कि मैं अपने आप को तीसमार-खाँ समझती थी जो कि एक भ्रम् निकला। इस भ्रम् को तोड़ने में सहायक रहे दूध और अंग्रेजों की बोई हुई फ़सल।
गोधूली का समय था और मैं अपने परमोपरम मित्र के साथ कैफे कॉफी डे में बैठी गंभीर चर्चा में निमग्न थी। अंग्रेज़ों द्बारा बोए गए बीज की एक पैदावार तभी एक छोटी पुस्तक और कलम लेकर मुस्कुराता हुआ हमारे वार्तालाप को भेदता सामने खड़ा हुआ। उसे प्रसन्न करने के लिए मैंने उसे एक हॉट-चॉकलेट लाने का निर्देश दिया जो कि एक पेय पदार्थ है। इसमें गर्म दूध में चॉकलेट मिश्रित होने के कारण मैं निश्चिंतता से उसे पी जाती हूँ।
परन्तु इस हॉट-चॉकलेट के आगमन पर मुझे पता चला कि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था। चॉकलेट का कहीं अता-पता नहीं था और दूध की सफेदी उजाला जैसी न सही, मुझे कष्ट तो दे ही रही थी। इसे पीने में स्वयं को असमर्थ पाते हुए मैंने पुस्तिका लिए हुए व्यक्ति को पुनः बुलवाया। अपने जहाँ-तहाँ हास-परिहास करने वाले स्वभाव के अहंकार में डूबी हुई मैं उससे बोली- ' भैया इस हॉट-चॉकलेट में बस हॉट ही हॉट है, चॉकलेट तो है ही नहीं।'
यह सुनकर अश्राव्य सी आवाज़ में जब वह अंग्रेज़ी में कुछ बडबडाया तो मुझे लगा कि मेरा कार्य सफल हुआ है और मैंने प्रसन्नता में सर हिला दिया। कुछ ही देर में मेरी प्रसन्नता को छिन्न-भिन्न करता वह उस हल्के श्वेतवर्ण दूध को और गर्म कर ले आया।
परमोपरम मित्र ने स्थिति का लाभ लेते हुए आनंदविभोर होकर कहा- 'और मारो सर्कास्टिक कमेंट्स'। मेरा घमंड तो चूर हुआ ही साथ में यह भी पता चला कि अंग्रेज़ों के इस राष्ट्र में हिन्दी का प्रयोग वर्जित है।
गोधूली का समय था और मैं अपने परमोपरम मित्र के साथ कैफे कॉफी डे में बैठी गंभीर चर्चा में निमग्न थी। अंग्रेज़ों द्बारा बोए गए बीज की एक पैदावार तभी एक छोटी पुस्तक और कलम लेकर मुस्कुराता हुआ हमारे वार्तालाप को भेदता सामने खड़ा हुआ। उसे प्रसन्न करने के लिए मैंने उसे एक हॉट-चॉकलेट लाने का निर्देश दिया जो कि एक पेय पदार्थ है। इसमें गर्म दूध में चॉकलेट मिश्रित होने के कारण मैं निश्चिंतता से उसे पी जाती हूँ।
परन्तु इस हॉट-चॉकलेट के आगमन पर मुझे पता चला कि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था। चॉकलेट का कहीं अता-पता नहीं था और दूध की सफेदी उजाला जैसी न सही, मुझे कष्ट तो दे ही रही थी। इसे पीने में स्वयं को असमर्थ पाते हुए मैंने पुस्तिका लिए हुए व्यक्ति को पुनः बुलवाया। अपने जहाँ-तहाँ हास-परिहास करने वाले स्वभाव के अहंकार में डूबी हुई मैं उससे बोली- ' भैया इस हॉट-चॉकलेट में बस हॉट ही हॉट है, चॉकलेट तो है ही नहीं।'
यह सुनकर अश्राव्य सी आवाज़ में जब वह अंग्रेज़ी में कुछ बडबडाया तो मुझे लगा कि मेरा कार्य सफल हुआ है और मैंने प्रसन्नता में सर हिला दिया। कुछ ही देर में मेरी प्रसन्नता को छिन्न-भिन्न करता वह उस हल्के श्वेतवर्ण दूध को और गर्म कर ले आया।
परमोपरम मित्र ने स्थिति का लाभ लेते हुए आनंदविभोर होकर कहा- 'और मारो सर्कास्टिक कमेंट्स'। मेरा घमंड तो चूर हुआ ही साथ में यह भी पता चला कि अंग्रेज़ों के इस राष्ट्र में हिन्दी का प्रयोग वर्जित है।
February 16, 2009
अंग्रेजों की अंग्रेज़ी
भारतवर्ष में अंग्रेज़ी घट-घट में कुछ इस प्रकार बसी है जैसे घी और खिचड़ी। हम भारतीयों का यह मानना है कि इस भाषा को बोलते हुए उच्चारण साफ़ और स्पष्ट होना चाहिए। हम यह भी मानते हैं कि गोरों से अधिक भली प्रकार से हम ही अंग्रेज़ी बोलते हैं- शब्दों के स्पष्ट उच्चारण के साथ। वे तो आधे शब्द खा जाते हैं और बाकी आधों का चूँ-चूँ का मुरब्बा बना देते हैं। इसी बे सिर-पैर की अंग्रेज़ी का शिकार एक दिन हिमांशु भईया बन गए।
यदि आप पहाडों के भ्रमण पर हैं और कभी अल्मोड़ा जाने की सोचें तो वहाँ पहुँचने पर आपको 'सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में आपका स्वागत है' का बड़ा सा पटल दिखाई देगा। क्योंकि अल्मोड़ा के निकट कई दर्शनीय स्थल हैं अतः यहाँ बहुतायत में लोग भ्रमण के लिए आते हैं जिसमें एक बड़ी संख्या में विदेशी भी सम्मिलित हैं। एक दिन जब हिमांशु भईया संध्याकालीन भ्रमण के लिए निकले तो माल रोड पर घूमते-घूमते उन्हें एक विदेशी ने पकड़ लिया। 'एक्स्क्याऊज़ मई' वह बोला। 'यस्' भईया ने कहा। 'खड या ठल मी वर्ज हौअल खालश ' वह बोला। 'पार्डन ' भईया ने उस अश्राव्य वाक्य को फ़िर से सुनने की कोशिश में कहा। 'हौअल खालश, हौअल खालश' वह बोला। एड़ी चोटी का ज़ोर लगाने पर भी भईया उसकी बात समझने में असमर्थ रहे। इज्ज़त का बैंड बजते देख भईया ने अपने कान और मुँह की और इशारा किया और ' आ आ आ ' बोलकर सर हिला दिया। विदेशी व्यक्ति ने किसी दूसरे व्यक्ति की ओर रुख किया, उससे कुछ पूछा और मुस्कुराता हुआ चल दिया। कौतुहलवश भईया उस व्यक्ति के पास गए और बोले 'भाई साब ये पूछ क्या रहा था?' 'वो होटल कैलाश कहाँ है ये पूछ रहा था।' उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
'अब बताओ, लिखा कुछ और है और उसे बोलते कुछ और हैं। इसमें हमारी क्या गलती है?' भईया हँसते हुए हमसे बोले। और इस प्रकार हमारे ट्यूशन के एक सुहावने दिन का अंत हुआ।
यदि आप पहाडों के भ्रमण पर हैं और कभी अल्मोड़ा जाने की सोचें तो वहाँ पहुँचने पर आपको 'सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में आपका स्वागत है' का बड़ा सा पटल दिखाई देगा। क्योंकि अल्मोड़ा के निकट कई दर्शनीय स्थल हैं अतः यहाँ बहुतायत में लोग भ्रमण के लिए आते हैं जिसमें एक बड़ी संख्या में विदेशी भी सम्मिलित हैं। एक दिन जब हिमांशु भईया संध्याकालीन भ्रमण के लिए निकले तो माल रोड पर घूमते-घूमते उन्हें एक विदेशी ने पकड़ लिया। 'एक्स्क्याऊज़ मई' वह बोला। 'यस्' भईया ने कहा। 'खड या ठल मी वर्ज हौअल खालश ' वह बोला। 'पार्डन ' भईया ने उस अश्राव्य वाक्य को फ़िर से सुनने की कोशिश में कहा। 'हौअल खालश, हौअल खालश' वह बोला। एड़ी चोटी का ज़ोर लगाने पर भी भईया उसकी बात समझने में असमर्थ रहे। इज्ज़त का बैंड बजते देख भईया ने अपने कान और मुँह की और इशारा किया और ' आ आ आ ' बोलकर सर हिला दिया। विदेशी व्यक्ति ने किसी दूसरे व्यक्ति की ओर रुख किया, उससे कुछ पूछा और मुस्कुराता हुआ चल दिया। कौतुहलवश भईया उस व्यक्ति के पास गए और बोले 'भाई साब ये पूछ क्या रहा था?' 'वो होटल कैलाश कहाँ है ये पूछ रहा था।' उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
'अब बताओ, लिखा कुछ और है और उसे बोलते कुछ और हैं। इसमें हमारी क्या गलती है?' भईया हँसते हुए हमसे बोले। और इस प्रकार हमारे ट्यूशन के एक सुहावने दिन का अंत हुआ।
February 15, 2009
नक़ल की अक्ल
जब कभी भी मेरे सहपाठी या अन्य अनुज छात्र मुझसे यह कहते हैं कि आप बड़ी क्रिएटिव हैं तो यह मुझे सोचने पर विवश कर देता है कि इसे मैं सम्मान का विषय समझूँ या इस वाक्य के पीछे कोई ऐसा कटाक्ष छुपा है जो मुझे ढूंढें नहीं मिल रहा। देखा जाए तो सृजनात्मक होना एक सदगुण ही है, परन्तु इसका प्रयोग आपको हुसैन से लेकर नटवरलाल... सबकुछ बना सकता है।
जब मैं दसवीं कक्षा में पहुँची तो ट्यूशन पढ़ना चलन में होने के कारण मेरी माँ ने मुझे भी 'विद्यालय के उपरांत घर के अलावा किसी और स्थान' पर पढ़ने के लिए भेजना उचित समझा। अतः मैं अपने घर के पड़ोस में ही, हिमांशु भैया के घर ट्यूशन पढ़ने जाने लगी। भईया क्योंकि अभी-अभी परास्नातक की पढ़ाई करके निकले ही थे तो वे हम लोगों से घुले-मिले हुए थे एवं खडूस अध्यापक तो बिल्कुल न थे। इस कारण पढ़ाई और बातचीत के बीच समय कब बीत जाता था पता नहीं चलता था। जोड़-तोड़ ये था कि पढ़ने वाले सभी बच्चे काफ़ी प्रसन्न थे।
हिमांशु भईया हर रविवार कि सुबह हमारी परीक्षा लेते थे। परीक्षा देते समय थोड़ा बहुत इधर-उधर से पूछा जाना हमारे सिद्धांतो को किंचित मात्र भी ठेस नहीं पहुँचाता था। अतः इसी कार्य में तन्मयता से लिप्त सुमित और प्रशांत जब भईया द्बारा पकड़े गए तो नक़ल पर चर्चा चल उठी। चर्चा में उन सभी विधियों का वर्णन किया जा रहा था जिसके द्वारा छात्र अपनी अंकतालिका को सुंदर बनाने का प्रयत्न करते हैं। जब हमने विद्यालय में प्रचलित कुछ विधियों का ब्यौरा दिया तो भईया बोले - " ये सब तो आम लोग करते हैं। आजकल नक़ल के तरीकों में नवीनता है, सृजनात्मकता है। अभी कुछ ही दिनों पहले मेरे बड़े भाई किसी कॉलेज में परीक्षक बनकर गए जहाँ उन्होंने नक़ल का एक अनूठा किस्सा पकड़ा। एक परीक्षार्थी पर जब उन्हें संदेह हुआ तो उन्होंने उसकी तालाशी ली। जगह-जगह से अनेकानेक कवियों और लेखकों की जीवनियाँ निकलीं। जब उसका मुँह खुलवाया गया तो उसमें एक छोटा सा पर्चा निकला जिसपर अति लघु लिखाई में अंकित था- कबीरदास दाएं मोजे में, सूरदास बायें मोजे में, और रहीम पैंट के पीछे वाली जेब में।
जब मैं दसवीं कक्षा में पहुँची तो ट्यूशन पढ़ना चलन में होने के कारण मेरी माँ ने मुझे भी 'विद्यालय के उपरांत घर के अलावा किसी और स्थान' पर पढ़ने के लिए भेजना उचित समझा। अतः मैं अपने घर के पड़ोस में ही, हिमांशु भैया के घर ट्यूशन पढ़ने जाने लगी। भईया क्योंकि अभी-अभी परास्नातक की पढ़ाई करके निकले ही थे तो वे हम लोगों से घुले-मिले हुए थे एवं खडूस अध्यापक तो बिल्कुल न थे। इस कारण पढ़ाई और बातचीत के बीच समय कब बीत जाता था पता नहीं चलता था। जोड़-तोड़ ये था कि पढ़ने वाले सभी बच्चे काफ़ी प्रसन्न थे।
हिमांशु भईया हर रविवार कि सुबह हमारी परीक्षा लेते थे। परीक्षा देते समय थोड़ा बहुत इधर-उधर से पूछा जाना हमारे सिद्धांतो को किंचित मात्र भी ठेस नहीं पहुँचाता था। अतः इसी कार्य में तन्मयता से लिप्त सुमित और प्रशांत जब भईया द्बारा पकड़े गए तो नक़ल पर चर्चा चल उठी। चर्चा में उन सभी विधियों का वर्णन किया जा रहा था जिसके द्वारा छात्र अपनी अंकतालिका को सुंदर बनाने का प्रयत्न करते हैं। जब हमने विद्यालय में प्रचलित कुछ विधियों का ब्यौरा दिया तो भईया बोले - " ये सब तो आम लोग करते हैं। आजकल नक़ल के तरीकों में नवीनता है, सृजनात्मकता है। अभी कुछ ही दिनों पहले मेरे बड़े भाई किसी कॉलेज में परीक्षक बनकर गए जहाँ उन्होंने नक़ल का एक अनूठा किस्सा पकड़ा। एक परीक्षार्थी पर जब उन्हें संदेह हुआ तो उन्होंने उसकी तालाशी ली। जगह-जगह से अनेकानेक कवियों और लेखकों की जीवनियाँ निकलीं। जब उसका मुँह खुलवाया गया तो उसमें एक छोटा सा पर्चा निकला जिसपर अति लघु लिखाई में अंकित था- कबीरदास दाएं मोजे में, सूरदास बायें मोजे में, और रहीम पैंट के पीछे वाली जेब में।
अंग्रेज़ी चलचित्र न देखने के नुक्सान
यूँ तो भारतवर्ष में रहने वाला जनसमूह भारतीय चलचित्र का शौकीन है ही परन्तु बीते हुए दशक में अंग्रेज़ी सिनेमा ने हम सबके दिलों में पैठ बना ली है। अंग्रेज़ी चलचित्र देखने के कुछ ख़ास लाभ तो नही हैं परन्तु न देखने के नुक्सान अवश्य हैं। अब जैसे हमारी संगीता जी को ही ले लीजिये जिन्हें अंग्रेज़ी सिनेमा में कोई दिलचस्पी न होने के कारण अपनी खोपड़ी भिनभिनानी पड़ी।
पंतनगर विश्वविद्यालय में दर्जन भर से अधिक छात्रावास हैं। इन्हीं में से एक है सरोजिनी भवन जिसमें पठन-पाठन के काल में हम रहा करते थे। इसके पास में माहेश्वरी नामक एक छोटी सी दुकान है जिसमें आश्चर्यजनक रूप से सुई से लेकर सी डी तक हर प्रकार की वस्तुएं मिल जाती हैं। जब यूँ ही कहीं से घूम फ़िर कर हम माहेश्वरी की दुकान पर पहुँचे तो ये आभास हुआ कि उस के आस-पास कुछ समाज में ही रहने वाले असामाजिक तत्त्व मंडरा रहे थे जिनके पास करने के लिए कुछ ख़ास काम न था। अतः जब हम वापस जाने लगे तो उन्होंने डिस्कवरी चैनल चलाते हुए विभिन्न प्रकार के जीव जंतुओं की आवाजें निकालनी प्रारंभ की मानों हमें चुनौती दे रहे हो कि किस जानवर की आवाज़ है बूझो तो जानें। उन सबके मध्य एक अंग्रेज़ी चलचित्र से प्रेरणा लेने वाला भी उपस्थित था। जानत्विक भाषा से ऊपर उठ उसने मनुष्यों की बोली में चार्लीज़ एंजेल्स का उच्चारण किया। टिप्पणी कुछ सटीक थी क्योंकि हम तीन थे जिसमें से कहानी की नायिका संगीता जी के मुखमंडल पर लूसी लिऊ की छाप थी कहा जाए तो अनुपयुक्त न होगा। मैंने और मेरी सहपाठिन ऋचा ने उसके बुद्धिकौशल की प्रशंसा की एवं छात्रावास की और बढ़ गए। वापस पहुँचने पर संगीता कुछ व्याकुल सी दिखाई दी। जब उससे कारण पूछा गया तो वह निष्कपट स्वर में बोली - "मुझे एक बात समझ नहीं आई।" "क्या? " ऋचा ने कौतुहल के साथ पूछा। अंग्रेज़ी चलचित्र के अद्भुत संसार से बेखबर संगीता बोली- "हम लोग तो तीन ही थे, तो फिर उन्होंने चालीस एंजेल्स क्यूँ कहा?"
पंतनगर विश्वविद्यालय में दर्जन भर से अधिक छात्रावास हैं। इन्हीं में से एक है सरोजिनी भवन जिसमें पठन-पाठन के काल में हम रहा करते थे। इसके पास में माहेश्वरी नामक एक छोटी सी दुकान है जिसमें आश्चर्यजनक रूप से सुई से लेकर सी डी तक हर प्रकार की वस्तुएं मिल जाती हैं। जब यूँ ही कहीं से घूम फ़िर कर हम माहेश्वरी की दुकान पर पहुँचे तो ये आभास हुआ कि उस के आस-पास कुछ समाज में ही रहने वाले असामाजिक तत्त्व मंडरा रहे थे जिनके पास करने के लिए कुछ ख़ास काम न था। अतः जब हम वापस जाने लगे तो उन्होंने डिस्कवरी चैनल चलाते हुए विभिन्न प्रकार के जीव जंतुओं की आवाजें निकालनी प्रारंभ की मानों हमें चुनौती दे रहे हो कि किस जानवर की आवाज़ है बूझो तो जानें। उन सबके मध्य एक अंग्रेज़ी चलचित्र से प्रेरणा लेने वाला भी उपस्थित था। जानत्विक भाषा से ऊपर उठ उसने मनुष्यों की बोली में चार्लीज़ एंजेल्स का उच्चारण किया। टिप्पणी कुछ सटीक थी क्योंकि हम तीन थे जिसमें से कहानी की नायिका संगीता जी के मुखमंडल पर लूसी लिऊ की छाप थी कहा जाए तो अनुपयुक्त न होगा। मैंने और मेरी सहपाठिन ऋचा ने उसके बुद्धिकौशल की प्रशंसा की एवं छात्रावास की और बढ़ गए। वापस पहुँचने पर संगीता कुछ व्याकुल सी दिखाई दी। जब उससे कारण पूछा गया तो वह निष्कपट स्वर में बोली - "मुझे एक बात समझ नहीं आई।" "क्या? " ऋचा ने कौतुहल के साथ पूछा। अंग्रेज़ी चलचित्र के अद्भुत संसार से बेखबर संगीता बोली- "हम लोग तो तीन ही थे, तो फिर उन्होंने चालीस एंजेल्स क्यूँ कहा?"
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February 14, 2009
लड़कियां और लड़के
हाल ही में मुहावरे और लोकोक्तियों का अध्ययन करते-करते मेरी दृष्टि 'मुँह खुला का खुला रह जाना' पर पड़ी। उदाहरण सोचने पर एक वाक्य नहीं वरन कई वाक्यों का एक समूह जो कि एक छोटे से वृत्तान्त का वर्णन करता है मुझे स्मरण हो आया।
बात कक्षा आठ की ही है, और संयोग से विद्यालय भी आर्मी स्कूल ही है। परन्तु संयोग इतना भी नहीं गहराया कि कहानी के पात्र भी हम ही हों। इसी बातूनी कक्षा में एक समय में विनीत कुमार के दायें-बाएँ राशि एवं नव्या नामक दो लड़कियां बैठा करती थीं। इनकी बातचीत की गाड़ी भी किसी न किसी प्रकार चल ही रही थी। राशि इस प्रकार की लड़कियों में गिनी जा सकती है जिन्हें परमोपरम मित्र की भाषा में टें-फें कहा जाता है। नव्या एक सीधी सरल सी लड़की थी। विनीत एक लड़का था।
हम भारतीयों ने गोरों के अनुसरण में उनके भोजन की पद्धति भी अपना ली है हम दिनभर में तीन अथवा चार बार खाना खाते हैं। अतः 'दो वक्त की रोटी' सरीखे जुमले अपनी मौलिकता खो चुके हैं। तो एक दिन इन तीनों के मध्य चर्चा का विषय था सुबह का नाश्ता। 'कौन सुबह क्या खाकर आता है' तीनों परस्पर इस विषय पर गंभीरता से अपने विचार प्रकट कर रहे थे। जैसा कि बताया गया है कि विनीत एक लड़का था और यहाँ बात खेलकूद की नहीं हो रही थी तो दुनिया के अन्य सभी विषयों की तरह यह विषय भी बेकार एवं चर्चा करने लायक नहीं था। परन्तु स्थान और समय कि विवशता ने उसके हाथ बाँध दिए थे। "कभी चौकोज़, कभी दूध और कॉर्नफ्लेक्स, कभी ब्रेड-बटर" टें-फें ने कोमलता के साथ गर्दन हिलाते हुए कहा। नव्या की ओर जब दृष्टि डाली गई तो वह सरलता से बोली "अधिकतर परांठा और सब्जी, कभी दूध इत्यादि" "विनीत तू क्या खाकर आता है?" टें-फें ने पूछा। "पाँच रोटी दाल।" विनीत ने भावविहीन मुख से दोनों की ओर देखते हुए कहा और तब हमारा यह मुहावरा चरितार्थ हो गया।
बात कक्षा आठ की ही है, और संयोग से विद्यालय भी आर्मी स्कूल ही है। परन्तु संयोग इतना भी नहीं गहराया कि कहानी के पात्र भी हम ही हों। इसी बातूनी कक्षा में एक समय में विनीत कुमार के दायें-बाएँ राशि एवं नव्या नामक दो लड़कियां बैठा करती थीं। इनकी बातचीत की गाड़ी भी किसी न किसी प्रकार चल ही रही थी। राशि इस प्रकार की लड़कियों में गिनी जा सकती है जिन्हें परमोपरम मित्र की भाषा में टें-फें कहा जाता है। नव्या एक सीधी सरल सी लड़की थी। विनीत एक लड़का था।
हम भारतीयों ने गोरों के अनुसरण में उनके भोजन की पद्धति भी अपना ली है हम दिनभर में तीन अथवा चार बार खाना खाते हैं। अतः 'दो वक्त की रोटी' सरीखे जुमले अपनी मौलिकता खो चुके हैं। तो एक दिन इन तीनों के मध्य चर्चा का विषय था सुबह का नाश्ता। 'कौन सुबह क्या खाकर आता है' तीनों परस्पर इस विषय पर गंभीरता से अपने विचार प्रकट कर रहे थे। जैसा कि बताया गया है कि विनीत एक लड़का था और यहाँ बात खेलकूद की नहीं हो रही थी तो दुनिया के अन्य सभी विषयों की तरह यह विषय भी बेकार एवं चर्चा करने लायक नहीं था। परन्तु स्थान और समय कि विवशता ने उसके हाथ बाँध दिए थे। "कभी चौकोज़, कभी दूध और कॉर्नफ्लेक्स, कभी ब्रेड-बटर" टें-फें ने कोमलता के साथ गर्दन हिलाते हुए कहा। नव्या की ओर जब दृष्टि डाली गई तो वह सरलता से बोली "अधिकतर परांठा और सब्जी, कभी दूध इत्यादि" "विनीत तू क्या खाकर आता है?" टें-फें ने पूछा। "पाँच रोटी दाल।" विनीत ने भावविहीन मुख से दोनों की ओर देखते हुए कहा और तब हमारा यह मुहावरा चरितार्थ हो गया।
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