इस लेख के दो प्रमुख मुद्दे हैं। पहला यह कि गोरे बड़े ही दूरगामी थे। भारत से जाते-जाते अपनी अंग्रेजियत यहाँ रोपकर चले गए, जिसकी लहलहाती फ़सल आजकल के नवजवानों के रूप में हम देखते ही हैं। दूसरा यह की मुझे सादा दूध पीना बड़ा ही कष्टकारी लगता है। जब तक उसमें भली प्रकार कुछ ऐसा न मिला हो, जिससे दूध का वास्तविक स्वाद जाता रहे तब तक उसे पीना मेरे लिए अकल्पनीय है। एक तथ्य जो इस किस्से से सामने आएगा वो यह भी है कि मैं अपने आप को तीसमार-खाँ समझती थी जो कि एक भ्रम् निकला। इस भ्रम् को तोड़ने में सहायक रहे दूध और अंग्रेजों की बोई हुई फ़सल।
गोधूली का समय था और मैं अपने परमोपरम मित्र के साथ कैफे कॉफी डे में बैठी गंभीर चर्चा में निमग्न थी। अंग्रेज़ों द्बारा बोए गए बीज की एक पैदावार तभी एक छोटी पुस्तक और कलम लेकर मुस्कुराता हुआ हमारे वार्तालाप को भेदता सामने खड़ा हुआ। उसे प्रसन्न करने के लिए मैंने उसे एक हॉट-चॉकलेट लाने का निर्देश दिया जो कि एक पेय पदार्थ है। इसमें गर्म दूध में चॉकलेट मिश्रित होने के कारण मैं निश्चिंतता से उसे पी जाती हूँ।
परन्तु इस हॉट-चॉकलेट के आगमन पर मुझे पता चला कि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था। चॉकलेट का कहीं अता-पता नहीं था और दूध की सफेदी उजाला जैसी न सही, मुझे कष्ट तो दे ही रही थी। इसे पीने में स्वयं को असमर्थ पाते हुए मैंने पुस्तिका लिए हुए व्यक्ति को पुनः बुलवाया। अपने जहाँ-तहाँ हास-परिहास करने वाले स्वभाव के अहंकार में डूबी हुई मैं उससे बोली- ' भैया इस हॉट-चॉकलेट में बस हॉट ही हॉट है, चॉकलेट तो है ही नहीं।'
यह सुनकर अश्राव्य सी आवाज़ में जब वह अंग्रेज़ी में कुछ बडबडाया तो मुझे लगा कि मेरा कार्य सफल हुआ है और मैंने प्रसन्नता में सर हिला दिया। कुछ ही देर में मेरी प्रसन्नता को छिन्न-भिन्न करता वह उस हल्के श्वेतवर्ण दूध को और गर्म कर ले आया।
परमोपरम मित्र ने स्थिति का लाभ लेते हुए आनंदविभोर होकर कहा- 'और मारो सर्कास्टिक कमेंट्स'। मेरा घमंड तो चूर हुआ ही साथ में यह भी पता चला कि अंग्रेज़ों के इस राष्ट्र में हिन्दी का प्रयोग वर्जित है।
February 17, 2009
February 16, 2009
अंग्रेजों की अंग्रेज़ी
भारतवर्ष में अंग्रेज़ी घट-घट में कुछ इस प्रकार बसी है जैसे घी और खिचड़ी। हम भारतीयों का यह मानना है कि इस भाषा को बोलते हुए उच्चारण साफ़ और स्पष्ट होना चाहिए। हम यह भी मानते हैं कि गोरों से अधिक भली प्रकार से हम ही अंग्रेज़ी बोलते हैं- शब्दों के स्पष्ट उच्चारण के साथ। वे तो आधे शब्द खा जाते हैं और बाकी आधों का चूँ-चूँ का मुरब्बा बना देते हैं। इसी बे सिर-पैर की अंग्रेज़ी का शिकार एक दिन हिमांशु भईया बन गए।
यदि आप पहाडों के भ्रमण पर हैं और कभी अल्मोड़ा जाने की सोचें तो वहाँ पहुँचने पर आपको 'सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में आपका स्वागत है' का बड़ा सा पटल दिखाई देगा। क्योंकि अल्मोड़ा के निकट कई दर्शनीय स्थल हैं अतः यहाँ बहुतायत में लोग भ्रमण के लिए आते हैं जिसमें एक बड़ी संख्या में विदेशी भी सम्मिलित हैं। एक दिन जब हिमांशु भईया संध्याकालीन भ्रमण के लिए निकले तो माल रोड पर घूमते-घूमते उन्हें एक विदेशी ने पकड़ लिया। 'एक्स्क्याऊज़ मई' वह बोला। 'यस्' भईया ने कहा। 'खड या ठल मी वर्ज हौअल खालश ' वह बोला। 'पार्डन ' भईया ने उस अश्राव्य वाक्य को फ़िर से सुनने की कोशिश में कहा। 'हौअल खालश, हौअल खालश' वह बोला। एड़ी चोटी का ज़ोर लगाने पर भी भईया उसकी बात समझने में असमर्थ रहे। इज्ज़त का बैंड बजते देख भईया ने अपने कान और मुँह की और इशारा किया और ' आ आ आ ' बोलकर सर हिला दिया। विदेशी व्यक्ति ने किसी दूसरे व्यक्ति की ओर रुख किया, उससे कुछ पूछा और मुस्कुराता हुआ चल दिया। कौतुहलवश भईया उस व्यक्ति के पास गए और बोले 'भाई साब ये पूछ क्या रहा था?' 'वो होटल कैलाश कहाँ है ये पूछ रहा था।' उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
'अब बताओ, लिखा कुछ और है और उसे बोलते कुछ और हैं। इसमें हमारी क्या गलती है?' भईया हँसते हुए हमसे बोले। और इस प्रकार हमारे ट्यूशन के एक सुहावने दिन का अंत हुआ।
यदि आप पहाडों के भ्रमण पर हैं और कभी अल्मोड़ा जाने की सोचें तो वहाँ पहुँचने पर आपको 'सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में आपका स्वागत है' का बड़ा सा पटल दिखाई देगा। क्योंकि अल्मोड़ा के निकट कई दर्शनीय स्थल हैं अतः यहाँ बहुतायत में लोग भ्रमण के लिए आते हैं जिसमें एक बड़ी संख्या में विदेशी भी सम्मिलित हैं। एक दिन जब हिमांशु भईया संध्याकालीन भ्रमण के लिए निकले तो माल रोड पर घूमते-घूमते उन्हें एक विदेशी ने पकड़ लिया। 'एक्स्क्याऊज़ मई' वह बोला। 'यस्' भईया ने कहा। 'खड या ठल मी वर्ज हौअल खालश ' वह बोला। 'पार्डन ' भईया ने उस अश्राव्य वाक्य को फ़िर से सुनने की कोशिश में कहा। 'हौअल खालश, हौअल खालश' वह बोला। एड़ी चोटी का ज़ोर लगाने पर भी भईया उसकी बात समझने में असमर्थ रहे। इज्ज़त का बैंड बजते देख भईया ने अपने कान और मुँह की और इशारा किया और ' आ आ आ ' बोलकर सर हिला दिया। विदेशी व्यक्ति ने किसी दूसरे व्यक्ति की ओर रुख किया, उससे कुछ पूछा और मुस्कुराता हुआ चल दिया। कौतुहलवश भईया उस व्यक्ति के पास गए और बोले 'भाई साब ये पूछ क्या रहा था?' 'वो होटल कैलाश कहाँ है ये पूछ रहा था।' उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
'अब बताओ, लिखा कुछ और है और उसे बोलते कुछ और हैं। इसमें हमारी क्या गलती है?' भईया हँसते हुए हमसे बोले। और इस प्रकार हमारे ट्यूशन के एक सुहावने दिन का अंत हुआ।
February 15, 2009
नक़ल की अक्ल
जब कभी भी मेरे सहपाठी या अन्य अनुज छात्र मुझसे यह कहते हैं कि आप बड़ी क्रिएटिव हैं तो यह मुझे सोचने पर विवश कर देता है कि इसे मैं सम्मान का विषय समझूँ या इस वाक्य के पीछे कोई ऐसा कटाक्ष छुपा है जो मुझे ढूंढें नहीं मिल रहा। देखा जाए तो सृजनात्मक होना एक सदगुण ही है, परन्तु इसका प्रयोग आपको हुसैन से लेकर नटवरलाल... सबकुछ बना सकता है।
जब मैं दसवीं कक्षा में पहुँची तो ट्यूशन पढ़ना चलन में होने के कारण मेरी माँ ने मुझे भी 'विद्यालय के उपरांत घर के अलावा किसी और स्थान' पर पढ़ने के लिए भेजना उचित समझा। अतः मैं अपने घर के पड़ोस में ही, हिमांशु भैया के घर ट्यूशन पढ़ने जाने लगी। भईया क्योंकि अभी-अभी परास्नातक की पढ़ाई करके निकले ही थे तो वे हम लोगों से घुले-मिले हुए थे एवं खडूस अध्यापक तो बिल्कुल न थे। इस कारण पढ़ाई और बातचीत के बीच समय कब बीत जाता था पता नहीं चलता था। जोड़-तोड़ ये था कि पढ़ने वाले सभी बच्चे काफ़ी प्रसन्न थे।
हिमांशु भईया हर रविवार कि सुबह हमारी परीक्षा लेते थे। परीक्षा देते समय थोड़ा बहुत इधर-उधर से पूछा जाना हमारे सिद्धांतो को किंचित मात्र भी ठेस नहीं पहुँचाता था। अतः इसी कार्य में तन्मयता से लिप्त सुमित और प्रशांत जब भईया द्बारा पकड़े गए तो नक़ल पर चर्चा चल उठी। चर्चा में उन सभी विधियों का वर्णन किया जा रहा था जिसके द्वारा छात्र अपनी अंकतालिका को सुंदर बनाने का प्रयत्न करते हैं। जब हमने विद्यालय में प्रचलित कुछ विधियों का ब्यौरा दिया तो भईया बोले - " ये सब तो आम लोग करते हैं। आजकल नक़ल के तरीकों में नवीनता है, सृजनात्मकता है। अभी कुछ ही दिनों पहले मेरे बड़े भाई किसी कॉलेज में परीक्षक बनकर गए जहाँ उन्होंने नक़ल का एक अनूठा किस्सा पकड़ा। एक परीक्षार्थी पर जब उन्हें संदेह हुआ तो उन्होंने उसकी तालाशी ली। जगह-जगह से अनेकानेक कवियों और लेखकों की जीवनियाँ निकलीं। जब उसका मुँह खुलवाया गया तो उसमें एक छोटा सा पर्चा निकला जिसपर अति लघु लिखाई में अंकित था- कबीरदास दाएं मोजे में, सूरदास बायें मोजे में, और रहीम पैंट के पीछे वाली जेब में।
जब मैं दसवीं कक्षा में पहुँची तो ट्यूशन पढ़ना चलन में होने के कारण मेरी माँ ने मुझे भी 'विद्यालय के उपरांत घर के अलावा किसी और स्थान' पर पढ़ने के लिए भेजना उचित समझा। अतः मैं अपने घर के पड़ोस में ही, हिमांशु भैया के घर ट्यूशन पढ़ने जाने लगी। भईया क्योंकि अभी-अभी परास्नातक की पढ़ाई करके निकले ही थे तो वे हम लोगों से घुले-मिले हुए थे एवं खडूस अध्यापक तो बिल्कुल न थे। इस कारण पढ़ाई और बातचीत के बीच समय कब बीत जाता था पता नहीं चलता था। जोड़-तोड़ ये था कि पढ़ने वाले सभी बच्चे काफ़ी प्रसन्न थे।
हिमांशु भईया हर रविवार कि सुबह हमारी परीक्षा लेते थे। परीक्षा देते समय थोड़ा बहुत इधर-उधर से पूछा जाना हमारे सिद्धांतो को किंचित मात्र भी ठेस नहीं पहुँचाता था। अतः इसी कार्य में तन्मयता से लिप्त सुमित और प्रशांत जब भईया द्बारा पकड़े गए तो नक़ल पर चर्चा चल उठी। चर्चा में उन सभी विधियों का वर्णन किया जा रहा था जिसके द्वारा छात्र अपनी अंकतालिका को सुंदर बनाने का प्रयत्न करते हैं। जब हमने विद्यालय में प्रचलित कुछ विधियों का ब्यौरा दिया तो भईया बोले - " ये सब तो आम लोग करते हैं। आजकल नक़ल के तरीकों में नवीनता है, सृजनात्मकता है। अभी कुछ ही दिनों पहले मेरे बड़े भाई किसी कॉलेज में परीक्षक बनकर गए जहाँ उन्होंने नक़ल का एक अनूठा किस्सा पकड़ा। एक परीक्षार्थी पर जब उन्हें संदेह हुआ तो उन्होंने उसकी तालाशी ली। जगह-जगह से अनेकानेक कवियों और लेखकों की जीवनियाँ निकलीं। जब उसका मुँह खुलवाया गया तो उसमें एक छोटा सा पर्चा निकला जिसपर अति लघु लिखाई में अंकित था- कबीरदास दाएं मोजे में, सूरदास बायें मोजे में, और रहीम पैंट के पीछे वाली जेब में।
अंग्रेज़ी चलचित्र न देखने के नुक्सान
यूँ तो भारतवर्ष में रहने वाला जनसमूह भारतीय चलचित्र का शौकीन है ही परन्तु बीते हुए दशक में अंग्रेज़ी सिनेमा ने हम सबके दिलों में पैठ बना ली है। अंग्रेज़ी चलचित्र देखने के कुछ ख़ास लाभ तो नही हैं परन्तु न देखने के नुक्सान अवश्य हैं। अब जैसे हमारी संगीता जी को ही ले लीजिये जिन्हें अंग्रेज़ी सिनेमा में कोई दिलचस्पी न होने के कारण अपनी खोपड़ी भिनभिनानी पड़ी।
पंतनगर विश्वविद्यालय में दर्जन भर से अधिक छात्रावास हैं। इन्हीं में से एक है सरोजिनी भवन जिसमें पठन-पाठन के काल में हम रहा करते थे। इसके पास में माहेश्वरी नामक एक छोटी सी दुकान है जिसमें आश्चर्यजनक रूप से सुई से लेकर सी डी तक हर प्रकार की वस्तुएं मिल जाती हैं। जब यूँ ही कहीं से घूम फ़िर कर हम माहेश्वरी की दुकान पर पहुँचे तो ये आभास हुआ कि उस के आस-पास कुछ समाज में ही रहने वाले असामाजिक तत्त्व मंडरा रहे थे जिनके पास करने के लिए कुछ ख़ास काम न था। अतः जब हम वापस जाने लगे तो उन्होंने डिस्कवरी चैनल चलाते हुए विभिन्न प्रकार के जीव जंतुओं की आवाजें निकालनी प्रारंभ की मानों हमें चुनौती दे रहे हो कि किस जानवर की आवाज़ है बूझो तो जानें। उन सबके मध्य एक अंग्रेज़ी चलचित्र से प्रेरणा लेने वाला भी उपस्थित था। जानत्विक भाषा से ऊपर उठ उसने मनुष्यों की बोली में चार्लीज़ एंजेल्स का उच्चारण किया। टिप्पणी कुछ सटीक थी क्योंकि हम तीन थे जिसमें से कहानी की नायिका संगीता जी के मुखमंडल पर लूसी लिऊ की छाप थी कहा जाए तो अनुपयुक्त न होगा। मैंने और मेरी सहपाठिन ऋचा ने उसके बुद्धिकौशल की प्रशंसा की एवं छात्रावास की और बढ़ गए। वापस पहुँचने पर संगीता कुछ व्याकुल सी दिखाई दी। जब उससे कारण पूछा गया तो वह निष्कपट स्वर में बोली - "मुझे एक बात समझ नहीं आई।" "क्या? " ऋचा ने कौतुहल के साथ पूछा। अंग्रेज़ी चलचित्र के अद्भुत संसार से बेखबर संगीता बोली- "हम लोग तो तीन ही थे, तो फिर उन्होंने चालीस एंजेल्स क्यूँ कहा?"
पंतनगर विश्वविद्यालय में दर्जन भर से अधिक छात्रावास हैं। इन्हीं में से एक है सरोजिनी भवन जिसमें पठन-पाठन के काल में हम रहा करते थे। इसके पास में माहेश्वरी नामक एक छोटी सी दुकान है जिसमें आश्चर्यजनक रूप से सुई से लेकर सी डी तक हर प्रकार की वस्तुएं मिल जाती हैं। जब यूँ ही कहीं से घूम फ़िर कर हम माहेश्वरी की दुकान पर पहुँचे तो ये आभास हुआ कि उस के आस-पास कुछ समाज में ही रहने वाले असामाजिक तत्त्व मंडरा रहे थे जिनके पास करने के लिए कुछ ख़ास काम न था। अतः जब हम वापस जाने लगे तो उन्होंने डिस्कवरी चैनल चलाते हुए विभिन्न प्रकार के जीव जंतुओं की आवाजें निकालनी प्रारंभ की मानों हमें चुनौती दे रहे हो कि किस जानवर की आवाज़ है बूझो तो जानें। उन सबके मध्य एक अंग्रेज़ी चलचित्र से प्रेरणा लेने वाला भी उपस्थित था। जानत्विक भाषा से ऊपर उठ उसने मनुष्यों की बोली में चार्लीज़ एंजेल्स का उच्चारण किया। टिप्पणी कुछ सटीक थी क्योंकि हम तीन थे जिसमें से कहानी की नायिका संगीता जी के मुखमंडल पर लूसी लिऊ की छाप थी कहा जाए तो अनुपयुक्त न होगा। मैंने और मेरी सहपाठिन ऋचा ने उसके बुद्धिकौशल की प्रशंसा की एवं छात्रावास की और बढ़ गए। वापस पहुँचने पर संगीता कुछ व्याकुल सी दिखाई दी। जब उससे कारण पूछा गया तो वह निष्कपट स्वर में बोली - "मुझे एक बात समझ नहीं आई।" "क्या? " ऋचा ने कौतुहल के साथ पूछा। अंग्रेज़ी चलचित्र के अद्भुत संसार से बेखबर संगीता बोली- "हम लोग तो तीन ही थे, तो फिर उन्होंने चालीस एंजेल्स क्यूँ कहा?"
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February 14, 2009
लड़कियां और लड़के
हाल ही में मुहावरे और लोकोक्तियों का अध्ययन करते-करते मेरी दृष्टि 'मुँह खुला का खुला रह जाना' पर पड़ी। उदाहरण सोचने पर एक वाक्य नहीं वरन कई वाक्यों का एक समूह जो कि एक छोटे से वृत्तान्त का वर्णन करता है मुझे स्मरण हो आया।
बात कक्षा आठ की ही है, और संयोग से विद्यालय भी आर्मी स्कूल ही है। परन्तु संयोग इतना भी नहीं गहराया कि कहानी के पात्र भी हम ही हों। इसी बातूनी कक्षा में एक समय में विनीत कुमार के दायें-बाएँ राशि एवं नव्या नामक दो लड़कियां बैठा करती थीं। इनकी बातचीत की गाड़ी भी किसी न किसी प्रकार चल ही रही थी। राशि इस प्रकार की लड़कियों में गिनी जा सकती है जिन्हें परमोपरम मित्र की भाषा में टें-फें कहा जाता है। नव्या एक सीधी सरल सी लड़की थी। विनीत एक लड़का था।
हम भारतीयों ने गोरों के अनुसरण में उनके भोजन की पद्धति भी अपना ली है हम दिनभर में तीन अथवा चार बार खाना खाते हैं। अतः 'दो वक्त की रोटी' सरीखे जुमले अपनी मौलिकता खो चुके हैं। तो एक दिन इन तीनों के मध्य चर्चा का विषय था सुबह का नाश्ता। 'कौन सुबह क्या खाकर आता है' तीनों परस्पर इस विषय पर गंभीरता से अपने विचार प्रकट कर रहे थे। जैसा कि बताया गया है कि विनीत एक लड़का था और यहाँ बात खेलकूद की नहीं हो रही थी तो दुनिया के अन्य सभी विषयों की तरह यह विषय भी बेकार एवं चर्चा करने लायक नहीं था। परन्तु स्थान और समय कि विवशता ने उसके हाथ बाँध दिए थे। "कभी चौकोज़, कभी दूध और कॉर्नफ्लेक्स, कभी ब्रेड-बटर" टें-फें ने कोमलता के साथ गर्दन हिलाते हुए कहा। नव्या की ओर जब दृष्टि डाली गई तो वह सरलता से बोली "अधिकतर परांठा और सब्जी, कभी दूध इत्यादि" "विनीत तू क्या खाकर आता है?" टें-फें ने पूछा। "पाँच रोटी दाल।" विनीत ने भावविहीन मुख से दोनों की ओर देखते हुए कहा और तब हमारा यह मुहावरा चरितार्थ हो गया।
बात कक्षा आठ की ही है, और संयोग से विद्यालय भी आर्मी स्कूल ही है। परन्तु संयोग इतना भी नहीं गहराया कि कहानी के पात्र भी हम ही हों। इसी बातूनी कक्षा में एक समय में विनीत कुमार के दायें-बाएँ राशि एवं नव्या नामक दो लड़कियां बैठा करती थीं। इनकी बातचीत की गाड़ी भी किसी न किसी प्रकार चल ही रही थी। राशि इस प्रकार की लड़कियों में गिनी जा सकती है जिन्हें परमोपरम मित्र की भाषा में टें-फें कहा जाता है। नव्या एक सीधी सरल सी लड़की थी। विनीत एक लड़का था।
हम भारतीयों ने गोरों के अनुसरण में उनके भोजन की पद्धति भी अपना ली है हम दिनभर में तीन अथवा चार बार खाना खाते हैं। अतः 'दो वक्त की रोटी' सरीखे जुमले अपनी मौलिकता खो चुके हैं। तो एक दिन इन तीनों के मध्य चर्चा का विषय था सुबह का नाश्ता। 'कौन सुबह क्या खाकर आता है' तीनों परस्पर इस विषय पर गंभीरता से अपने विचार प्रकट कर रहे थे। जैसा कि बताया गया है कि विनीत एक लड़का था और यहाँ बात खेलकूद की नहीं हो रही थी तो दुनिया के अन्य सभी विषयों की तरह यह विषय भी बेकार एवं चर्चा करने लायक नहीं था। परन्तु स्थान और समय कि विवशता ने उसके हाथ बाँध दिए थे। "कभी चौकोज़, कभी दूध और कॉर्नफ्लेक्स, कभी ब्रेड-बटर" टें-फें ने कोमलता के साथ गर्दन हिलाते हुए कहा। नव्या की ओर जब दृष्टि डाली गई तो वह सरलता से बोली "अधिकतर परांठा और सब्जी, कभी दूध इत्यादि" "विनीत तू क्या खाकर आता है?" टें-फें ने पूछा। "पाँच रोटी दाल।" विनीत ने भावविहीन मुख से दोनों की ओर देखते हुए कहा और तब हमारा यह मुहावरा चरितार्थ हो गया।
January 29, 2009
पुस्तकालय और आलस्य
मेरी माँ के हमेशा कहे जाने वाले वचनों में 'आलस्य गरीबी की जड़ है' प्रमुख है। परन्तु शायद उन्हें यह जानकर आश्चर्य न होगा कि यह गरीबी के साथ - साथ उलाहना सुनने और लताड़े जाने का भी द्योतक है।
मैं यह सिद्ध नहीं करना चाह रही कि मैं दीन-हीन भाग्य की मारी हुई हूँ या हर कोई जुतियाता रहता है। न ही काव्या पन्त के मुख से खीझ की पराकाष्ठा में निकला यह वाक्य कि ' भैया हमें तो कुत्ता भी लात मारकर चले जाता है ' मुझपर सही बैठता है, परन्तु मैंने भी कई न सही कुछ दुत्कार की कठिन घड़ियाँ जीवन में झेली हैं।
पंतनगर विश्वविद्यालय का चार मंज़िला पुस्तकालय एशियाई महाद्वीप के कुछ सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक है। इसके बावजूद इसी विश्वविद्यालय के गृह-विज्ञान महाविद्यालय में अपना एक पुस्तकालय है। यह सोचने का विषय है कि इस प्रकार कि कृपा केवल इस महाविद्यालय पर क्यों की गई है, परन्तु अभी हम मूल विषय पर आते हुए यह बता दें कि वि.वि. के हर छात्र - छात्रा को दाखिला लेने पर पुस्तकालय से चार कार्ड प्राप्त होते हैं। यह मुझे भी हो सकते थे, पर लापरवाही और आलस्य मेरे दो भाइयों के समान मेरे साथ-साथ चले तो मैं सर्वथा इनको बनवाने का कष्ट न कर पाई। दूसरे वर्ष में फ़ाइन देकर कार्ड बनवाने का विचार मुझे कुछ सुहाया नहीं और तीसरा एवं चौथा वर्ष भी क्रमशः इसी प्रकार बीत गया।
अध्ययन पूर्ण होने पर वि.वि. में पढ़ रहे विद्यार्थी को एक 'नो-ड्यूज' नामक पर्चा मिलता है। यदि कोई यह प्रामाणित कर दे कि पंतनगर के 'नो-ड्यूज' से बड़ा भी कोई सरदर्द है तो मैं प्रतिज्ञा करती हूँ कि अपनी भविष्य में छपने वाली पुस्तक का विमोचन उसी से करवाउंगी। यह नो-ड्यूज़ सैकड़ों विभागों के सामने अलग-अलग प्रकार के जूते-चप्पल घिसने के पश्चात् पुस्तकालय से होता हुआ भी जाता है। वहाँ आप अपने कार्ड समर्पित कर दें और पुस्तकालय की मल्लिका [ जो हृदयविदारक रूप से एक ख़तरनाक महिला हैं ] के हस्ताक्षर आपके हुए समझिये।
मेरे समक्ष एक जटिल प्रश्न् था- 'कार्ड कहाँ से आए?' चतुराई दिखाते हुए जब मैंने यूँ ही नो-ड्यूज़ करवाने का प्रयत्न किया, तो कुछ समय तक मेरी कार्ड आवंटन संख्या [ जिसके लिए एक और कार्ड होता है ] ढूंढ-ढूंढ कर परेशान एवं भन्नाई पुस्तकालय की साम्राज्ञी यह पता चलने पर कि वह ऐतिहासिक कार्ड कभी बना ही न था, कर्कश आवाज़ में कुछ यूँ बोलीं - " कार्ड बनवाया ही नहीं आज तक? अब क्या करियेगा? हमनें अपनी बीस साल की नौकरी में आज तक ऐसा कोई नहीं देखा जिसने कार्ड न बनवाया हो। जाईये सेंट्रल लाइब्रेरी में पता कीजिये। कार्ड ही नहीं बनवाया है।"
सर उठाने में कष्ट तो था पर एक सरसरी निगाह इधर-उधर दौड़ाने पर यह जानकर संतोष हुआ कि मुझे अधिक लोगों ने न देखा था। बस कुछ हँसते हुए सहपाठी, कुछ अन्य पुस्तकालय कर्मी और तीस- पचास अचम्भे से मेरी ओर देखते हुए जूनियर्स।
मैं यह सिद्ध नहीं करना चाह रही कि मैं दीन-हीन भाग्य की मारी हुई हूँ या हर कोई जुतियाता रहता है। न ही काव्या पन्त के मुख से खीझ की पराकाष्ठा में निकला यह वाक्य कि ' भैया हमें तो कुत्ता भी लात मारकर चले जाता है ' मुझपर सही बैठता है, परन्तु मैंने भी कई न सही कुछ दुत्कार की कठिन घड़ियाँ जीवन में झेली हैं।
पंतनगर विश्वविद्यालय का चार मंज़िला पुस्तकालय एशियाई महाद्वीप के कुछ सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक है। इसके बावजूद इसी विश्वविद्यालय के गृह-विज्ञान महाविद्यालय में अपना एक पुस्तकालय है। यह सोचने का विषय है कि इस प्रकार कि कृपा केवल इस महाविद्यालय पर क्यों की गई है, परन्तु अभी हम मूल विषय पर आते हुए यह बता दें कि वि.वि. के हर छात्र - छात्रा को दाखिला लेने पर पुस्तकालय से चार कार्ड प्राप्त होते हैं। यह मुझे भी हो सकते थे, पर लापरवाही और आलस्य मेरे दो भाइयों के समान मेरे साथ-साथ चले तो मैं सर्वथा इनको बनवाने का कष्ट न कर पाई। दूसरे वर्ष में फ़ाइन देकर कार्ड बनवाने का विचार मुझे कुछ सुहाया नहीं और तीसरा एवं चौथा वर्ष भी क्रमशः इसी प्रकार बीत गया।
अध्ययन पूर्ण होने पर वि.वि. में पढ़ रहे विद्यार्थी को एक 'नो-ड्यूज' नामक पर्चा मिलता है। यदि कोई यह प्रामाणित कर दे कि पंतनगर के 'नो-ड्यूज' से बड़ा भी कोई सरदर्द है तो मैं प्रतिज्ञा करती हूँ कि अपनी भविष्य में छपने वाली पुस्तक का विमोचन उसी से करवाउंगी। यह नो-ड्यूज़ सैकड़ों विभागों के सामने अलग-अलग प्रकार के जूते-चप्पल घिसने के पश्चात् पुस्तकालय से होता हुआ भी जाता है। वहाँ आप अपने कार्ड समर्पित कर दें और पुस्तकालय की मल्लिका [ जो हृदयविदारक रूप से एक ख़तरनाक महिला हैं ] के हस्ताक्षर आपके हुए समझिये।
मेरे समक्ष एक जटिल प्रश्न् था- 'कार्ड कहाँ से आए?' चतुराई दिखाते हुए जब मैंने यूँ ही नो-ड्यूज़ करवाने का प्रयत्न किया, तो कुछ समय तक मेरी कार्ड आवंटन संख्या [ जिसके लिए एक और कार्ड होता है ] ढूंढ-ढूंढ कर परेशान एवं भन्नाई पुस्तकालय की साम्राज्ञी यह पता चलने पर कि वह ऐतिहासिक कार्ड कभी बना ही न था, कर्कश आवाज़ में कुछ यूँ बोलीं - " कार्ड बनवाया ही नहीं आज तक? अब क्या करियेगा? हमनें अपनी बीस साल की नौकरी में आज तक ऐसा कोई नहीं देखा जिसने कार्ड न बनवाया हो। जाईये सेंट्रल लाइब्रेरी में पता कीजिये। कार्ड ही नहीं बनवाया है।"
सर उठाने में कष्ट तो था पर एक सरसरी निगाह इधर-उधर दौड़ाने पर यह जानकर संतोष हुआ कि मुझे अधिक लोगों ने न देखा था। बस कुछ हँसते हुए सहपाठी, कुछ अन्य पुस्तकालय कर्मी और तीस- पचास अचम्भे से मेरी ओर देखते हुए जूनियर्स।
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January 28, 2009
मेहनत एवं भूल-चूक
[नरेन्द्र पन्त के द्वारा स्वयं को उससे भी ज़्यादा मूर्ख सिद्ध किए जाने के पश्चात् मूर्खता की दुनिया से परे हटकर यह लेख मैंने ऑरकुट में नहीं वरन् यहीं लिखा है। ]
यदि हम कहें कि हमें किसी मेहनती व्यक्ति का उदाहरण प्रस्तुत करना है और आप धीरुभाई , विजय माल्या इत्यादि की रट लगाना आरम्भ करें तो यह सर्वथा उचित नहीं होगा। स्टीवन लेविट के अनुसार जब हम किसी घटना या वाकये का अवलोकन करते हैं तो उसे बड़े ही सतही तौर पर देखते हैं। यह बात साधारण जन की भाँति हमपर भी लागू होती है।
यूँ तो कहा जाता है कि किसान बड़ा मेहनती होता है, परन्तु यह नहीं कि इस तथ्य की आड़ में हम अन्य मेहनती लोगों को उनका श्रेय देना भूल जाएँ। कहने का तात्पर्य यह है कि यहाँ बात रिक्शेवाले की हो रही है। यदि हम ध्यान दें तो पायेंगे कि मेहनत और लगन के साथ लोगों को उनके गंतव्य स्थान पर पहुँचाता हुआ यह रिक्शेवाला, दिनभर मेहनत करता है। रिक्शा एक तिपहिया वाहन है जिसे पेडल मारकर चलाया जाता है। पीछे दो या तीन लोगों के बैठने के लिए स्थान होता है एवं आगे वह गद्दी जिसमें मेहनतकश रिक्शेवाला बैठकर लोगों को ठेलता है।
शाम का समय था और सुहावनी हवा चल रही थी जो बिल्कुल भी बेमतलब नहीं लगती थी। कहानी की मुख्य पात्र मैं अपनी माँ, भाई , बुआ उनके बच्चों एवं अन्य परिजनों के साथ हल्द्वानी के बाज़ार में घूम रही थी। काफ़ी देर घूमने के पश्चात हमें ये आभास हुआ कि घर दूर है अतः वापस जाने के लिए मेहनतकश रिक्शेवाले की मदद तो लेनी ही पड़ेगी। इसीलिए हमने एक रिक्शेवाले को बुलाया और भावताव के पश्चात बुआ, माँ और तीन छोटे छोटे बच्चे रिक्शे पे सवार हो लिए। रिक्शेवाले की गद्दी के ठीक नीचे जो छोटी गद्दी होती है उसपर मेरा अधिपत्य हुआ करता था और कुछ भी हो जाए, मैं वहीं बैठती थी। तो अपने इस व्यवहार के अनुसार इस बार भी मैंने कुछ ऐसा ही किया। कुछ देर चलने के उपरांत मेरी माँ एवं बुआ ने यह इंगित किया कि जिस गद्दी पर मैं विराजमान हूँ वह कुछ ऊंची सी है। उन लोगों के ऐसा कहने पर मुझे भी यह बात सत्य प्रतीत हुई। तो मैंने निरीक्षण परीक्षण करने पर जाना कि मैं मेहनतकश रिक्शेवाले की गद्दी पर विराजित थी। रिक्शेवाला मेहनती होने के साथ साथ शांत स्वभाव का भी जान पड़ा, क्योंकि इतनी देर तक खड़े खड़े रिक्शा चलाने के उपरांत भी उसने मुझसे हटने को नहीं कहा था। एक और बात जिसका पता चला वो यह थी कि जब आप किसी हास्यास्पद स्थिति में हो तो भाई, बन्धु, माता... कोई भी साथ नहीं देता, क्योंकि सभी दिल खोलकर मुझपे हँसे थे.
यदि हम कहें कि हमें किसी मेहनती व्यक्ति का उदाहरण प्रस्तुत करना है और आप धीरुभाई , विजय माल्या इत्यादि की रट लगाना आरम्भ करें तो यह सर्वथा उचित नहीं होगा। स्टीवन लेविट के अनुसार जब हम किसी घटना या वाकये का अवलोकन करते हैं तो उसे बड़े ही सतही तौर पर देखते हैं। यह बात साधारण जन की भाँति हमपर भी लागू होती है।
यूँ तो कहा जाता है कि किसान बड़ा मेहनती होता है, परन्तु यह नहीं कि इस तथ्य की आड़ में हम अन्य मेहनती लोगों को उनका श्रेय देना भूल जाएँ। कहने का तात्पर्य यह है कि यहाँ बात रिक्शेवाले की हो रही है। यदि हम ध्यान दें तो पायेंगे कि मेहनत और लगन के साथ लोगों को उनके गंतव्य स्थान पर पहुँचाता हुआ यह रिक्शेवाला, दिनभर मेहनत करता है। रिक्शा एक तिपहिया वाहन है जिसे पेडल मारकर चलाया जाता है। पीछे दो या तीन लोगों के बैठने के लिए स्थान होता है एवं आगे वह गद्दी जिसमें मेहनतकश रिक्शेवाला बैठकर लोगों को ठेलता है।
शाम का समय था और सुहावनी हवा चल रही थी जो बिल्कुल भी बेमतलब नहीं लगती थी। कहानी की मुख्य पात्र मैं अपनी माँ, भाई , बुआ उनके बच्चों एवं अन्य परिजनों के साथ हल्द्वानी के बाज़ार में घूम रही थी। काफ़ी देर घूमने के पश्चात हमें ये आभास हुआ कि घर दूर है अतः वापस जाने के लिए मेहनतकश रिक्शेवाले की मदद तो लेनी ही पड़ेगी। इसीलिए हमने एक रिक्शेवाले को बुलाया और भावताव के पश्चात बुआ, माँ और तीन छोटे छोटे बच्चे रिक्शे पे सवार हो लिए। रिक्शेवाले की गद्दी के ठीक नीचे जो छोटी गद्दी होती है उसपर मेरा अधिपत्य हुआ करता था और कुछ भी हो जाए, मैं वहीं बैठती थी। तो अपने इस व्यवहार के अनुसार इस बार भी मैंने कुछ ऐसा ही किया। कुछ देर चलने के उपरांत मेरी माँ एवं बुआ ने यह इंगित किया कि जिस गद्दी पर मैं विराजमान हूँ वह कुछ ऊंची सी है। उन लोगों के ऐसा कहने पर मुझे भी यह बात सत्य प्रतीत हुई। तो मैंने निरीक्षण परीक्षण करने पर जाना कि मैं मेहनतकश रिक्शेवाले की गद्दी पर विराजित थी। रिक्शेवाला मेहनती होने के साथ साथ शांत स्वभाव का भी जान पड़ा, क्योंकि इतनी देर तक खड़े खड़े रिक्शा चलाने के उपरांत भी उसने मुझसे हटने को नहीं कहा था। एक और बात जिसका पता चला वो यह थी कि जब आप किसी हास्यास्पद स्थिति में हो तो भाई, बन्धु, माता... कोई भी साथ नहीं देता, क्योंकि सभी दिल खोलकर मुझपे हँसे थे.
January 27, 2009
Poignancy
I am disappointed with the notebooks of today. When you try writing with an ink pen on one side of the page, it shows on the other side. What are these guys making? Bloating papers? The stationary industry is to be pitied!! You might build big red buildings with stylishly written "staples" on it, but if you cannot give me a notebook in which I can happily write with an ink-pen... screw you.
January 21, 2009
परम मित्र
कभी कभी गुरुत्वाकर्षण के न होने पर भी दो मित्रों की मित्रता में दरार आ सकती है. परन्तु कारण यहाँ भी मिलता जुलता ही है.
आर्मी स्कूल में १९९८ में कक्षा आठ के छात्र-छात्राएं कुछ ज्यादा ही बातूनी हो चले थे. और अगर अतिशयोक्ति की जाए तो इसकी वजह से अनुशासन के पर्यायवाची आर्मी स्कूल की इमेज को गहरा झटका सा लग रहा था. अतः हमारी अध्यापिका ने यह सुनिश्चित किया कि या तो दो लड़को के बीच में एक लड़की बैठेगी या दो लड़कियों के बीच में एक लड़का. लड़का लड़की के भेद से अनभिज्ञ हमारा बातें करना निरंतर बहती हुई सरिता कि भाँति चलता रहा. कक्षा में सबसे ज्यादा शोर जिस कोने से आता था वह संयोग से कुछ उस जगह था जहाँ मैं और मेरी परम मित्र रागिनी के बीच में हिमांशु बैठता था एवं इसके ठीक आगे दो परम मित्रों राहुल और विवेक के बीच राशी. हमारी पढ़ाई की गाड़ी बातचीत के महत्त्वपूर्ण कार्य में विघ्न तो नहीं ही डाल रही थी अतः हम छः लोग प्रसन्नचित्त ही रहते थे.
विवेक बड़ा ही विनोदी स्वभाव का लड़का था एवं हर समय हँसी मज़ाक करना जैसे उसका कर्त्तव्य था. इसके विपरीत राहुल सदा ही शांत एवं गंभीर रहता था. एक दिन हमने देखा की राहुल कुछ रुष्ट सा है और विवेक से बात नहीं कर रहा है. हमने राहुल से कारण पूछा तो वह चुप रहा. फिर हमारी प्रश्न भरी आँखें विवेक की ओर मुड़ी और वह हमको देख कर मुस्कुरा दिया. थोड़ा और पूछने पर हमें पता चला की राहुल के रूठने का कारण गुरुत्वाकर्षण तो बिल्कुल नहीं था.
राहुल और विवेक एक ही इमारत में क्रमशः ऊपर नीचे रहते थे. पिछले दिन राहुल विवेक के घर खेलने आया और अपनी चप्पलें वहीं भूलकर ऊपर चला गया. विवेक ने जब यह देखा तो उसने एक अच्छा मित्र होने के नाते उसकी चप्पलें वापस लौटानी चाहीं. इन चप्पलों को लौटाने का सबसे सरल रास्ता विवेक को राहुल के बारामदे से दीख पड़ा. अब इसे संयोग कहें या राहुल का दुर्भाग्य विवेक के चप्पल ऊपर फेंकते ही राहुल अपने बारामदे में अवतरित हुआ. दोनों ही चप्पलों ने राहुल के सर को तबले की तरह बजा दिया. यह तो हम नहीं जानते की तबला बजने पर राहुल के मुख से जो संगीत निकला वह शास्त्रीय, लोक या आधुनिक था परन्तु राहुल ने विवेक से बोलना बंद कर दिया था.
आर्मी स्कूल में १९९८ में कक्षा आठ के छात्र-छात्राएं कुछ ज्यादा ही बातूनी हो चले थे. और अगर अतिशयोक्ति की जाए तो इसकी वजह से अनुशासन के पर्यायवाची आर्मी स्कूल की इमेज को गहरा झटका सा लग रहा था. अतः हमारी अध्यापिका ने यह सुनिश्चित किया कि या तो दो लड़को के बीच में एक लड़की बैठेगी या दो लड़कियों के बीच में एक लड़का. लड़का लड़की के भेद से अनभिज्ञ हमारा बातें करना निरंतर बहती हुई सरिता कि भाँति चलता रहा. कक्षा में सबसे ज्यादा शोर जिस कोने से आता था वह संयोग से कुछ उस जगह था जहाँ मैं और मेरी परम मित्र रागिनी के बीच में हिमांशु बैठता था एवं इसके ठीक आगे दो परम मित्रों राहुल और विवेक के बीच राशी. हमारी पढ़ाई की गाड़ी बातचीत के महत्त्वपूर्ण कार्य में विघ्न तो नहीं ही डाल रही थी अतः हम छः लोग प्रसन्नचित्त ही रहते थे.
विवेक बड़ा ही विनोदी स्वभाव का लड़का था एवं हर समय हँसी मज़ाक करना जैसे उसका कर्त्तव्य था. इसके विपरीत राहुल सदा ही शांत एवं गंभीर रहता था. एक दिन हमने देखा की राहुल कुछ रुष्ट सा है और विवेक से बात नहीं कर रहा है. हमने राहुल से कारण पूछा तो वह चुप रहा. फिर हमारी प्रश्न भरी आँखें विवेक की ओर मुड़ी और वह हमको देख कर मुस्कुरा दिया. थोड़ा और पूछने पर हमें पता चला की राहुल के रूठने का कारण गुरुत्वाकर्षण तो बिल्कुल नहीं था.
राहुल और विवेक एक ही इमारत में क्रमशः ऊपर नीचे रहते थे. पिछले दिन राहुल विवेक के घर खेलने आया और अपनी चप्पलें वहीं भूलकर ऊपर चला गया. विवेक ने जब यह देखा तो उसने एक अच्छा मित्र होने के नाते उसकी चप्पलें वापस लौटानी चाहीं. इन चप्पलों को लौटाने का सबसे सरल रास्ता विवेक को राहुल के बारामदे से दीख पड़ा. अब इसे संयोग कहें या राहुल का दुर्भाग्य विवेक के चप्पल ऊपर फेंकते ही राहुल अपने बारामदे में अवतरित हुआ. दोनों ही चप्पलों ने राहुल के सर को तबले की तरह बजा दिया. यह तो हम नहीं जानते की तबला बजने पर राहुल के मुख से जो संगीत निकला वह शास्त्रीय, लोक या आधुनिक था परन्तु राहुल ने विवेक से बोलना बंद कर दिया था.
January 20, 2009
क्रोध और गुरुत्वाकर्षण
क्रोध एवं गुरुत्वाकर्षण परस्पर सम्बंधित हैं. यह बात अजीब लगती है परन्तु सत्य है. इसका आभास मुझे बचपन से हो चला था.
बात तब की है जब हम नैनीताल में आशुतोष भवन में रहते थे जो कि एक चार मंजिली इमारत थी. इमारत के सामने एक छोटा सा मैदान था जिसपर मकान मालिक का पोता पियूष खडा था. पहली मंजिल के बरामदे पर कहानी का दूसरा पात्र राहुल (जिसे अगर मेरा भाई कहा जाए तो गलत नहीं होगा), खडा हुआ प्रकृति का आनंद ले रहा था.
यह संदेह का विषय है कि राहुल इस बात से अनभिज्ञ था कि पियूष नीचे खडा है. क्योकि राहुल एक सामान्य बालक था और देखने सुनने में भली प्रकार से सक्षम था अतः हम यह मान कर चलते हैं कि राहुल ने पियूष को देख ही लिया था. हम राहुल को एक लापरवाह लड़का भी मान सकते हैं क्योकि राहुल ने लापरवाही दिखाते हुए नीचे की ओर अपने मुख से एक द्रव बहाया अर्थात थूका. थूक ठीक पियूष के पास आकर गिरा. स्थायी क्रोध जो कि किसी को भी कभी भी अपना शिकार बना सकता है पियूष को पकड़ चुका था. इसी क्रोध के प्रभाव में पियूष ने बुद्धि लगाकर ऊपर की ओर थूक दिया. क्योकि पियूष एक छोटा बालक था अतः वह गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से अनभिज्ञ था और भगवान् ने भी पियूष के लिए इस सिद्धांत को बदलना ज़रूरी नहीं समझा. तो थूक ठीक वही आकर गिरा जहाँ से उसकी उत्पत्ति हुई थी, अर्थात पियूष की नाक के नीचे.
निष्कर्ष यह तो निकलता ही है की क्रोध भी सोच समझकर ही करना चाहिए साथ में यह भी की यदि आप कभी थूकना चाहें तो पहले गुरुत्वाकर्षण का भली प्रकार अध्यन कर लें.
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